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________________ r भगवान महावीर हुए। क्रोधित हो ताप्सने लकड चीड़े तो उसमें भरणासन्न सर्पयुगल निकले । भगवानने सोको उपदेश दिया जिससे समताभावसे प्राण त्यागकर वे स्वर्गमें देवता हुए। तापस मरकर व्यंतर हुआ। और कई भवोंके वैरके कारणवश जब भगवान ध्यानमें लवलीन थे तब उन पर नाना प्रकारके कष्टोंका प्रहार करने लगा। भगवान धीरवीर ध्यानसे अविचल थे। उसने जब अग्न्यिादिकी वर्षा करना प्रारंभ की तब वहांपर वही सर्पके जीव धरणेन्द्रने आकर सर्प वेष धारणकर भगवानके ऊपर अपना फण फैलाकर उपसर्ग निवारण किया था--अपने उपकारीका इस प्रकार कष्ट हटाया था। तो समन्त-' भद्रस्वामीने इस ही घटनाका उल्लेख उपर्युक्त लोकमें किया है और · अगाडी चलकर कहा है कि इस उपसर्गका फल यह हुआ कि भगवान पार्श्वनाथको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और वे अर्हन्त पदको प्राप्त हुए थे। जिसके प्रभाव से अन्य मिथ्या मार्गामें प्रवर्तित वापस आदि भी भगवानकी शरणमें आए थे। इस मुख्य घटनाके उपलक्षमें ही जितनी भी दिगम्बर मूर्तियां श्री पार्श्वनाथ भगवानकी मिलती ' हैं वे सब इसी उपसर्गावस्थाको व्यक्त करती हैं और उनपर सर्पका" फण होता है। इस कारण इस घटनाकी प्रबलता हृदयपर अङ्कित होनाती है। और ऐसा विशेष कारण उपलब्ध नहीं होता जिससे जेनशास्त्रोके वर्णन पर विश्वास न किया नाय । वैसे भी डॉ. जेकोबी यह मानते हैं कि जैनियोंके पवित्र अन्य अवश्य ही ( Classical ) संस्स्त साहित्यसे प्राचीन हैं। और उनको एक विश्वसनीय इतिहासका सौतन माननेका केवल यहीं एक कारण प्रो० कोवीके अनुसार था कि नैनधर्म और बौदधर्ममें।
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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