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________________ भगवान महावीर। भगवानके शरीरका तेज एक साथ उगे हुए सूर्योके तेजसे भी अधिक होजाता हैं। उनके वैसे समयकी विभूति दर्शनीय और अति विचित्र है। भगवानके प्रमावसे चारों तरफ सौ सौ योजन (चारसौ कोस) तक दुर्भिक्ष नहीं पड़ता, परस्पर विरोधी जीव किसीको किसी प्रकार कष्ट नहीं पहुंचाते, भगवान पर किसी तरहका ' उपरार्ग नही उठता । उनको क्षुधा तृषा नही लगती, उनके शरीरकी परछाई नहीं पड़ती, आंखोंके पलक नही झपकते, केश और नख नहीं वढ़ते। उनका शरीर स्फटिकसा निर्मल रहता है । घातिया कोंके नाश होनेसे भगवानके ये अतिशय प्रकट होते हैं। भगवानका उपदेश अर्धमागधी भाषामें होता है, जिसे सब अपनी २ भाषामें समझ लेते हैं। समवशरणमें कुत्ता, विली, सिह, गाय, सांप, नेवला आदि परस्पर विरोधी जीव भी रहते हैं। परन्तु उन सबमें वहां प्रेम होता है, कोई किसीको कष्ट नहीं देता। भगवान जहां जहां विहार करते, वहां वहां सब ऋतुओं के फलफूल लग जाते हैं। कांचके सनान एथिवी निर्मल दिखती है। वायुकुमार देव-यह एक योनन (चार कोस) जमीनको साफ करने हैं। मेघकुमार देव शीतल, मन्द, सुगन्धित नल बरसाते हैं। स्वर्गके देव भगवानके चरणोंके इन वायोंको इस अध्यायके प्रारभिक वाक्यके उन शब्दोंसे जो लाई शाम मुगलमा ० १ आ० १४-१५ के हैं मिलान कोलिए। साई धर्म में नियमके वर्णन नाश्य इस प्रकार होना एक गोचरणीय बात है। मि० चमतराय जैन धरिष्टरने अपनी असहमतसगम नामका समें इस धर्ममें माता बेनपके सिद्धान्तका पर्गन प्रकट कर दिया।
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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