SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्वेताम्वरकी उत्पत्ति। २१७ परन्तु आभ्यन्तरिक अवस्थाके सम्बन्धमें भी यही हालत है । जैसे कि डॉ. ओल्डन्बर्गका कहना है कि बौद्धोंके तिशरण सिद्धान्त बुद्धकी मृत्युके पश्चात मान लिया गया है। और यह ज्ञात ही है कि प्रारम्भमें बौद्धधर्म एक सैद्धान्तिक धर्म नहीं था। आनीवकोंके सम्बन्धमें भी हम देख चुके हैं कि उनके यहां भी मक्खाली गोशालकी मृत्युके पश्चात् अन्य सिद्धान्त और देवी देवताओंकी मान्यता प्रारम्भ कर दी गई थी। इस जमानेके पहिले प्राचीन नमानेमें सर्वरूपेण सर्वबातोंमें स्वतंत्रता थी जैसे कि हम पहिले देख चुके हैं। और जिसके विषयमें डॉ. स्टीवेन्सन कहते हैं कि " यदि उस प्राचीन नमानेमें कोई जैन वा बौद्ध संगठन नही था तो ब्राह्मण धर्मका भी नहीं था, अतः सत्य यह प्रतीत होता है कि इस उल्लिखित समयमें लोगोंके मध्य सर्व प्रकारके विचारों और आचारोंको स्थान मिलता था।" अन्य प्राचीन धर्मोके विषयमें तो हम देख चुके, परन्तु अब देखना चाहिये कि उस प्राचीन नमानेमें एवं उसके पश्चात् जैनधर्मकी क्या अवस्था रही थी ? जैनधर्मके तत्व वैज्ञानिक रीत्या सत्य हैं। और उनमें संशोधन किसी प्रकारका कभी भी नहीं किया जा सक्ता, क्योंकि यदि ऐसा किया जाय तो उनकी वह वैज्ञानिक लड़ी टूट नाय, जो आज हमको प्राप्त है। इसलिए जैनधर्म अपने असली और अखण्डरूपमें सदैवसे है और सदैव रहेगा, क्योंकि वह खयं सत्य है । हां ! यह अवश्य संभव है कि उसके वाह्य शरीरमें कुछ परिवर्तन कमीर होनाय । भगवान महावीरके पहिले भी जैनधर्मकी यही हालत थी तब भी इसके बाह्य शरीरमें अवश्य
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy