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________________ भगवान महावीर - - करते हैं और ऐशोआराम हीको वे लोग ‘मनुष्यत्व समझ बैठते हैं। कई मनुष्योंने तो आराम ही को मुक्ति माना है। तथैव 'नीति अनीति, धर्म अधर्मकी कक्षाएं बनाई हैं, उनके द्वारा आराम-सुखको प्राप्तव्य ठहराकर लौकिक शास्त्रोंकी रचनाकर डाली है और मनुष्योंको इन बंधनोंकी शीतल छायामें साहस, आप लिखते * कि "अम्मक मामले भगवान महावीरने अपना उपदेश प्रारम्भ किया । (आपने कहा) सर्व धोका मुल दया है। परन्तु दयाके "पूर्ण उतार्षके लिए क्षमा, नम्रता, सरलता, पवित्रता, संयम, संतोष, सत्य, तप, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये देश धर्म सेवन करना चाहिए । ........शात, दान्त, व्रत नियममें मावधान और विश्ववत्सल मोक्षार्थी । मनुष्य निष्कपटरूपमें जो २ क्रिया करता है उनसे गुणवी वृद्धि होती है। जिस पुरुषकी अदा पवित्र है उसे शुभ और अशुभ दोनों ही वस्तुएं शुभ विचारके कारण शुभ रूप फल प्रदान करती हैं।....हे विचारशील पुरुष, जन्मके और जराके दुःखोंको देख । निस प्रकार तुझे सुख प्रिय है उसी प्रकार सर्व जीवोंको भी है, यह विचारकर किसी भी जीवको मार मत और न दूसरोंमे मरवा । लोगोंके दुःखों को जाननेवाले सज्ञानी पुरुषोंने मुनियों और रहस्यों, रागियों और त्यागियों, एव मोगिया और योगियोंके प्रति यह धर्म कहा है किसी भी जीवको मारना नहीं, उनपर हुकूमत चलाना नहीं, उनको पराधीन करना नहीं, और हैरान भी करना नहीं । पराक्रमी पुरुष संकट पहनेपर मी दयाको छोडवे नहीं।...हे मुनि, अदरमें युद्ध कर, दूसरे बाहरी युद्धकी क्या आवश्यका है । युद्धको सामग्री मिलना अति कठिन है।....विवेक हो तो प्राममें रहते हुए भी धर्म है और 'घनमें रहते हुए भी है। विवेक न हवे तो दोनों स्थानोंका रहना अधर्म प है।" -देखोख अने महावीर पृष्ट ८८-११
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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