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________________ भगवानका दिपदेश | २०१ प्रतिमामें पहुंचकर अहस्थाश्रमका त्याग करदेता है और वनमें रहकर साधुधर्मका अभ्यास करने लगता है। इस समय वह गुरुके निकट दीक्षा लेता है, तपश्चरण करता है, भिक्षावृत्तिसे उदरपोषण करता है और केवल एक लंगोटी पहिनता है । अर्थात् वह अब मुनिधर्मके दरवाजेपर पहुंच जाता है, और फिर महाव्रतों का पालन करनेसे मुनि हो जाता है । अतएव क्रमवार संसारसे ममत्व हटाकर आत्म- मुमुक्षु जीवोंको निर्ग्रन्थरूप धारण करना योग्य है । और अपने स्वाभाविक गुणोको - परमसुखको प्राप्त करना अभीष्ट है । इसलिए जिन्हें स्वातंत्र्यमें मजा है उन्हें तो तुच्छसे भी तुच्छ वस्तुकी परतंत्रताकी आवश्यक्ता नही है। ऐसोंके लिए शरम कोई चीज नहीं है । अतएव आत्मखातंत्र्यके प्रेमियोको वस्त्रोंके झगड़ोंको छोडकर प्राकृतिक नग्नरूप - सत्यरूप धारण करना चाहिए | पर्वतपर स्वतंत्रतासे निर्मय घूमनेवाले सिंहोंको वस्त्रकी जिस प्रकार आवश्यक्ता नही है, उनके लिए वस्त्रका ध्यान ही निर्बलता है, उसी प्रकार आत्म स्वातंत्र्य - पर्वतपर भ्रमण करनेवाले मनुष्योको भी वस्त्रकी कोई आवश्यक्ता नहीं है । 'स्वाधीन चेताओके लिए तो खाभाविक नग्नवृत्ति ही है । 1 " जिन भगवान न तो आज्ञा करते हैं और न प्रार्थनां । आज्ञा, प्रार्थना और भय यह तीनों बलाऐं उनसे दूर हैं। इसलिए भ्रम में पड़कर लोग भगवानके यथार्थ उपदेशको + समझने में गल्ती + भगवान महावीरके पवित्र दिव्योपदेशको एक अजैन विद्वान मि० किशोरलाल घनश्यामलाल मशरूवालाने जिस उचित एव उन्नत प्रकार समझा है वह हम पाठकोंके अवलोकनार्थ प्रकट करते हैं ।
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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