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________________ भगवान महावीर और म० बुद। १६९ "भाइयो ! कुछ ऐसे सन्यासी हैं, (अचेलक, आजीविक, निर्गय आदि) नो ऐसा श्रद्धान रखते और उपदेश करते हैं कि प्राणी जो कुछ सुख दुःख व समभावका अनुभव करता है वह सब पूर्व कर्मके निमित्से होता है। और तपश्चरणसे, पूर्व कोके नाशसे, और नये कर्मोके न करनेसे, आगामी जीवनमें आश्रवके रोकनेसे, कर्मका क्षय होता है और इस प्रकार पापका क्षय और सर्वदुःखका विनाश है । भाइयो, यह निग्रंथ (जैन) कहते हैं......मैंने उनसे पूछा क्या यह सच है कि तुम्हारा ऐसा श्रद्धान है और तुम इसका प्रचार करते हो....उन्होने उत्तर दिया....हमारे गुरू नातपुत्त सर्वज्ञ हैं........उन्होने अपने गहन ज्ञानसे इसका उपदेश दिया है कि तुमने पूर्वमें पाप किया है, इसको तुम उग्र और दुस्सह आचारसे दूर करो और जो आचार मन वचन' कायसे किया जाता है उससे आगामी जन्ममे बुरे कर्म कट जाते हैं...... इस प्रकार सब कर्म अन्तमें क्षय होनायगे और सारे दुःखका विनाश होगा। इस सर्वसे हम सहमत हैं।" (Majjhima II, 214. ofi 238 देखो असहमतसंगम प्रप्ट ". यहां बुद्धदेव स्पष्टतया (१) परमात्मन् महावीर, (२) जैनधर्म, और (३) जैनियोंके इस अत्यावश्यक वादका कि परमात्मन् महावीर सर्वज्ञ थे, उल्लेख करते हैं और बुद्धदेवकी जो इच्छा निगंथ (जैन) से बातचीत करनेकी हुई वह केवल कौतुकरूप नही थी कि जिसका कोई सप्ट फल न हो । उनके चित्तमे उस पूर्ण ज्ञानके प्राप्त करनेका उच उद्देश्य था जो उन्होंने परमात्मन्
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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