SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ भगवान महावीर । __ यही मुनि नहां तहां विचरते और लोगोंको उपदेश देते हुए पलाशकूट नगरमें पहुंचे। वहां राना श्रेणिकके मंत्र का पुत्र पुप्पडाल रहता था। वह सच्चा सम्यग्दृष्टी था। उसने वारिषेण मुनिको आहार दिया था। पश्चात् वारिषेण मुनिने पुप्पडालको ज्ञान वैराग्यका उपदेश दिया था, जिसके कारण वह भी उनके निकट मुनि होगया । मुनि तो वह होगया किन्तु उसका मन सदैव अपनी स्त्रीमें लगा रहता था। एक दिन वे दोनों महावीर खामीके समवशरणमें पहुंचे। वहां उसने एक गंधर्वको एक श्लोक पढ़ते सुना, जिसका भाव था कि हे भगवान् ! आपने पृथ्वीरूप स्त्रीको तीस वर्षतक अच्छी तरह भोगके छोड़ दिया है। इसलिए वह धेचारी आपके विछोहसे दुःखी होकर, नदीरूप आंसुओसे आपके नामको रो रही है । इसके सुनते ही उसे अपनी स्त्रीकी याद आ गई और वह अपने घरकी ओर जाने लगा। परन्तु अंतरयामी मुनि वारिषेणने उसे जाने न दिया-उसे धर्ममे स्थिर रखना उचित समझा इसलिए वे उसे राजगृह नगरमे राजप्रासादमें ले गए। और वहां अपनी स्त्रियोको उसे दिखाकर कहा कि "हे मुनि ! जिस घनके लिए तुम मुनिपद छोड़कर जाना चाहते हो, सो यह अतिशय रूपवान स्त्रियां गृहण करो और भोगकर देख लो कि इनमें सुख है या मुनिमार्गमे सुख है।" पुष्पडाल यह वचन सुन लजित हुआ और गुल्ले प्रायश्चित्त लेकर मुनिधर्ममें पुनः बढ़तामें मनको लगाकर मोमको प्राप्त हुआ था । वारिपेण मुनि इस प्रकार , मुनिको धर्नमे स्थिर रखने के कारण विशेष यशके भागी हुए, और अन्तमें वे भी मोक्षको प्रात होगए थे। :
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy