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________________ विहार और धर्मप्रचार। १११ 'बहुगुणसंपदसकलं परमतमपि मधुरवचनविन्यासकलम् । नय भक्त्यवतंसकलं तव देव ! मतं समन्तभद्रं सकलम् ॥ . अर्थात् सर्वज्ञत्व, वीतरागत्वाडिक जो बहुगुण तद्रूप सम्पत्ति उससे न्यून, तथा मधुर वचनोंकी रचनासे युक्त मनोज्ञ, ऐसा पुरका मत है, तथा आपका मत (धर्मोपदेश) सम्यक् प्रकारसे भव्य प्राणियोंको कल्याणका कर्ता है और नैगमादि नयोंका नो भंग ( स्यादस्तीत्यादि भेद) तद्रूप नो कर्णभूषण उसको लानेवाला है, अर्थात् नैगमादि नय व सप्तमंगों सहित है। भगवानके धर्मोपदेशमें एक मुख्यता यह भी थी कि आपके धर्मोपदेशसे प्रभावित व्यक्तिको भगवान के संघमें आश्रय मिलता था । जातिभेद-वर्णभेदकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता था। सर्व प्रकारके जीवों के लिए भगवानके संघमें स्थान था । स्वयं भगवानके मुख्य गणधर ब्राह्मण थे। इस प्रकार भगवानके संगमें सर्वप्रकार के मनुष्य जैन धर्मानुयायी थे। और भगवानने अपने उत्कृष्ट तीस वर्ष इस प्रकार धर्मप्रचार और विहार करते हुए, प्रभावशाली राज्योंको जैनधर्ममें परिवर्तन करते हुए विता दिए थे । अब भगवानके निर्वाण प्राप्तिका समय आगया था, परन्तु उस पुण्यमई अवसरका वर्णन करनेके पहिले हम भगवानके गणधरों, मुनियों, विशेष भक्तों और समकालीन मनुष्योंका परिचय पाठकोंको करादेंगे। NDJEEMA
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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