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________________ www विहार और धर्मप्रचार। १०५ __ भगवानके इस विहारमें देवगण और उनके गणधर, मुनि और आर्यिकाऐं, श्रावक और श्राविकाएं सब साथ रहा करते थे और भगवानका विहार जिस अपूर्वतासे होता था (निसका वर्णन तीर्थकरके प्रकरणमें कर चुके हैं। ) उससे अन्य लोगोंक चित्तोंपर बड़ा प्रभाव पड़ता था। वे अपने मिथ्या श्रद्धानको खो बैठते थे। अब भगवानने अपनी उस निर्वाण प्राप्तिकी अभिलाषाको प्राप्त कर लिया था, जिसके लिए वे अहर्निश अपनी आत्माके ध्यान और योग साधनमें बारह वर्ष तक तल्लीन रहे थे। यद्यपि अभी मोक्ष प्राप्त करनेमें कुछ अवकाश अवशेष था। . ' भगवानने अब अपने संसार-परिभ्रमणकारक आठ कोपर विजय प्राप्त कर ली थी। अब आप 'जिन' की पदवीको प्राप्त हो गए थे। आप संसारकी समस्त दशाओंको अपने ज्ञानमें देख सक्त थे, और मानवोंके हृदयविचारोंको जान लेते थे । आपका ज्ञान सम्पूर्ण लोकालोककी वस्तुओं में व्याप्त होगया था। आपको अपनी आत्मा और लोकके स्वरूपका ध्यान करनेसे परमोच्चतम सम्यकदर्शन और ज्ञानका भान होगया था। इस समय भगवान यथार्थमें भगवान थे। निस धर्मको भगवानने अपने अनुभव द्वारा साक्षात देखलिया, उसीका प्रचार करनेके लिए आपने उपर्युल्लिखित विहार किया । संसारतापसे झुलसी हुई सुखकी पिपासी आत्माओंको आपने धर्मामृतका पान कराया-सुख और शान्तिका मार्ग बताया । भव्योको उसी समय अनन्त मुखका रसास्वादन कराया। अनुमानतः तीस वर्षतक इस प्रकार आपने भारतवर्ष में यत्रतत्र
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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