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________________ तपश्वरण और केवलज्ञानोत्पत्ति । ( १८ ) तपश्चरण और केवलज्ञानोत्पत्ति । " श्री वर्धमानमानंद नौमि नानागुणाकरं । विशुध्यानदीप्ताचित कर्मसमुचयं ॥ " ९५ भगवान महावीरके तपश्वरण और केवलज्ञानोत्पत्तिका वर्णन करनेके पहिले आइए उन भगवानके घातियां कम्मोंके क्षय होकर - केवलज्ञानोत्पत्तिके हर्षोपलक्षमें उनका स्मरण हृदयसे करलें, जिससे उन जैसी शुभ्र दशाको मैं व आप जैसी भव्य आत्माऐं प्राप्त हों । अस्तु । · भगवान महावीर अब जैनमुनिके कठिन तपश्चरणका अनुसरण करने लगे थे, परीषहोंको जीतते थे, व्रतोंका पालन करते अपनी आत्मोन्नतिके लिए बड़े २ उपवास करते थे । और · उनमें अपनी आत्माके शुक्लध्यानमें लवलं न रहते थे । इस समय आप यत्रतत्र भ्रमण अवश्य करते थे, परन्तु अभी आपने प्रकट रीत्या जनतामें उपदेश देना प्रारंभ नहीं किया था; जैसे कि नियम है कि तीर्थकर भगवान केवलज्ञानकी प्राप्ति तक उपदेश नहीं देते हैं । इस भ्रमणके मध्य आप चातुर्मासमे एक स्थान पर वर्षाऋतुके चार महीने रहते थे; क्योंकि इन दिनों बहुतसे सूक्ष्म जीव पृथ्वी पर उत्पन्न होजाते हैं । और उनके प्राणोंकी हिन्सा न करनेके लिए जैन मुनि भ्रमण नहीं करते हैं । इस भ्रमण और केवलज्ञान त्पत्तिके बादके भ्रमणका वर्णन जैन शास्त्रोंमें बहुत खूबीके साथ दिया हुआ है । दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थ इस बातको व्यक्त
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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