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________________ ५६ भगवान महावीर । सका है। पद्मा (कमलश्री ज्ञानश्री) प्रातःकालमें सूर्यके तेजके विना क्या अपने आप ही विकसित होनाती है ? स्नेहरहित दशाके धारक आप जगतके अद्वितीय दीपक हैं। कठिनतासे रहित हैं अन्तरात्मा जिसकी ऐसे आप चिन्तामणि हो।'.......इस प्रकार स्तुति करके देवगण पुष्पोंसे भूषित हैं समीचीन मेवृक्ष जहाँपर ऐसे उस मेरुसे भगवानको मकानोंके आगे बंधे हुए कदली ध्वनाओंसे रुके हुए और विमानोंके अवतार समयसे व्यात ऐसे नगरमे शीघ्र ही फिर वापिस लौटाकर ले आए। 'पुत्रके हर नानेसे उत्पन्न हुई पीड़ा-खेद आप माता पिताको न हो इसलिए पुत्रकी प्रकृति बनाकर अर्थात् माताके निकट मायामय पुत्रको छोड़कर आपके पुत्रको मेरुपर ले जाकर और वहां उसका अभिषेककर वापिस लाए हैं ।' यह कहकर देवोंने पुत्रको मातापिताको सुपुर्द किया ।" ___ इस प्रकार ज्ञात होता है कि भगवानकी प्रसिद्धि चहुओर जन्मकालसे होगई थी। और उनके दिव्य दर्शनसे मुनिजन भी अपनेको इतन्त्य समझते थे । चारणलब्धिके धारक विजय व संजय नामके दो यतियोका संशयार्थ एक दिन भगवानको देखते ही दूर हो गया था और उन्होने भगवानका नाम 'सन्मति' रखा था । प्रभू दिनोदिन बढ़ने लगे थे और शैशव अवस्थाको प्राप्त होते हुए थे। ॐ म PMENo.
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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