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________________ (६७) चलने का उपदेश दिया भगवान के निर्वाण बाद इन्द्रादि देवता ओ ने अन्तेष्टिक्रिया की वगेरा अहन के मत में लोकोत्तर पुरुषों को आचार ही मुख्य प्रमाण है यर्श तक क रामायण मे देखिये दशरथ चन्द्रादिको ने अपने कुलगुरु वशिष्ट इस्लाम धर्म में भी निकाह. खतनादि सस्कार अपने गुरुओं से ही काकै सा सन्मान किया कराना होता है ऐसे ही अग्रज भी शादि आदि संस्कार अपने गुरुओ से कराते है पर बड़े पश्चाताप का मुकाम है कि हमारे जैन भाई आधुनी ममय में देवगुरु आज्ञा उल्लघन कर अपने यहाँ सस्पार कर्म अन्यमतावलम्बियों के हाथ से कराना सिद्ध किया है उसका कुफल उठाते हुए भी सचेतन होते यह कहाँ तक शोमनीय है लेकिन यह गृहस्थ गुरुओ को भूल जाने का कारण है । इसमें कोई महाशय यह भी शंका पैदा करेगा कि भगवान आदि नाथ ने सर्व हक्क महाणों को ही मोंप दिया तो निग्रन्थ साधुत्री को मान्यता का तो कोई हक ही नहीं रहा, नहीं नहीं ऐसा न समझिये आप जरा मोचे कि संसार में दो तरह के धर्म प्रवर्तमान है उसमें पहले भगवान ने प्रवर्ति मार्ग कायमकर उसके यावत कार्य है धन पर इस जाति का हक कारमा किया और जव भगवान ने कल्पानकारी दिक्षा धारण कर मोक्ष मार्ग का रास्ता. बताया उस पर उपदेशक साधु मुनि निग्रन्धों का हक कायम किया याने इन शेनों मार्गों को चलाने का उपदेशक गृहस्थ गुरु व निप्र. न्थ गुरुओं को कायम किये यहा आप सोचो कि संसारी कार्यों से कहीं ऊँचा मोक्ष मार्ग निवृत्ति मार्ग है इसलिये निवृति मार्ग दर्शक निग्रन्थ गुरुजीयादा सन्मान योग्य माने
SR No.010402
Book TitleMahatma Pad Vachi Jain Bramhano ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaktavarlal Mahatma
PublisherVaktavarlal Mahatma
Publication Year1945
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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