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________________ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न रागादि उत्पन्न करते हैं। रागादि आत्माके ही अशुद्ध परिणाम हैं । इसलिए परद्रव्यपर कोप करना वृथा है। उदाहरणार्थ-निन्दा या स्तुति में पुद्गलद्रव्य वचनरूप परिणत होता है, मगर वह वचन सुनकर तू क्यों प्रसन्न या क्रुद्ध होता है ? क्यों तुम मानते हो कि तुम्हें कुछ कहा गया है ? पुद्गलद्रव्य शुभ या अशुभ रूपमें परिणत हुआ तो हुआ, अगर वह तुमसे भिन्न है और उसके गुण भी तुमसे भिन्न हैं, तो फिर तुम्हारा क्या बिगड़ा कि तुम मूर्ख बनकर क्रोध करते हो ? वह शुभ या अशुभ शब्द तुम्हें कहने नहीं आते कि तुम हमें सुनो, और तुम्हारा आत्मा कानमें पड़े शब्दोंको ग्रहण करने भी नहीं जाता। इसी प्रकार अच्छा या बुरा रूप भी तुम्हें प्रेरणा करने नहीं आता कि हमें देखो। यही बात शुभ-अशुभ गन्ध, रस, स्पर्श, गुण और द्रव्यके विषयमें भी है। अलबत्ता, वस्तुका यह स्वभाव ही है कि प्रत्येक इन्द्रियका विषय, उन-उन इन्द्रियोंका विपय तो होगा ही। इसे कोई रोक नहीं सकता। परन्तु मूढ़ मनुष्य उन विपयोंमें उपशान्त रहनेके बदले उन्हें ग्रहण करनेकी अभिलाषा करता है। उसमें कल्याणमयी विवेकबुद्धि ही नहीं है। जैसे दोपकका स्वभाव घट-पट आदिको प्रकाशित करना है उसी प्रकार ज्ञानका स्वभाव ज्ञेयको जानना है। मगर ज्ञेयको जानने मात्रसे ज्ञानमें विकार उत्पन्न होनेका कोई कारण नहीं। ज्ञेयको जानकर उसे भला-बुरा मानकर आत्मा रागी-द्वेषी होता है, बस यही अज्ञान है। यही कर्मबन्धनका मूल है। इसलिए पहले किये हुए शुभ-अशुभ अनेक प्रकारके कर्म-द्वारा उत्पन्न होनेवाले भावोंसे तु अपनी आत्माको बचा । अर्थात् उन्हें अपनेसे भिन्न मान; उनमें अहं-मम-बुद्धि मत कर और स्व-स्वभावमें स्थित हो। यही प्रतिक्रमण है। इसी प्रकार आगामी कर्मों या उनके कारणभूत भावोंसे अपने-आपको बचाना ही प्रत्याख्यान है। और वर्तमान दोषसे आत्माकी रक्षा करना ही आलोचना है। इस तरह तीन कालसम्बन्धी कर्मोंसे आत्माको भिन्न जानना, श्रद्धा करना और अनुभव करना ही सच्चा प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना है।
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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