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________________ पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु ९७ अस्तित्व बनाये रखता है। फिर भी व्यवहार में कहा जाता है कि कलई अपने स्वभावसे घर वगैरहको सफेद करती है, इसी प्रकार जीव अपने स्वभावसे परद्रव्यको जानता है, देखता है, तजता है, श्रद्धा करता है, ऐसा कहा जा सकता है । (स० ३५६-६५) परन्तु परमार्थ दृष्टिसे तो आत्माको परद्रव्यका ज्ञाता, द्रष्टा या त्यागकर्ता नहीं कह सकते। क्योंकि परद्रव्यमें और आत्मामें कोई सम्बन्ध ही नहीं है। चाँदनी पृथ्वीको उज्ज्वल करती है, किन्तु उसे पृथ्वोसे कोई लेन-देन नहीं; इसी प्रकार ज्ञानका ऐसा स्वभाव है कि उसमें अन्य द्रव्योंका प्रतिभास पड़ता है, मगर इतने मात्रसे आत्माको ज्ञायक नहीं कह सकते। वह अपने-आपमें ज्ञानमय ही है। परद्रव्यके साथ उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । (स० ३५६-६५) आत्मामें रागादि नहीं है-ऊपरकी वस्तुपर आचारकी दृष्टिसे विचार कीजिए । मिथ्यादर्शन, ज्ञान और चारित्र अचेतन विषयों में नहीं हैं, जिससे कि विषयोंमें कुछ करना आवश्यक हो। वह अचेतन कर्ममें भी नहीं है कि उसमें कुछ करना आवश्यक हो। वह अचेतन शरीरमें भी नहीं है कि जिससे शरीरमें कुछ करना आवश्यक हो। जो गुण जीवके हैं, वह परद्रव्यमें कहाँसे होंगे ? इसलिए ज्ञानी पुरुष विषय आदिमें रागादिकी खोज नहीं करता। आत्माके अज्ञानमय परिणामसे ही रागादि उत्पन्न होते हैं। अज्ञानका जब अभाव हो जाता है, तब सम्यग्दृष्टि जीवको विषयोंमें रागादि नहीं होते। इस प्रकार विचार करनेसे विदित होता है कि रागादि भाव न विषयोंमें हैं, न सम्यदृष्टिमें है। इसका अर्थ यह हुआ कि वे हैं ही नहीं। हाँ, जीवको अज्ञान दशामें उनका सद्भाव है। वह कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है, न स्वतन्त्र द्रव्यमें रहते ही हैं। वह जीवके अज्ञान भावसे उत्पन्न होते हैं। सम्यग्दृष्टि बनकर तात्त्विक दृष्टिसे देखो तो वह कुछ भी नहीं है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें किसी भी प्रकारका परिणाम पैदा नहीं कर सकता । सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभावके अनुसार परिणत होते हैं। अतएव यह मानना भी गलत है कि परद्रव्य जीवमें
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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