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________________ पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु मिथ्यात्व, असंयम, चारों गतियोंमें भ्रमण तथा दूसरे सब शुभ-अशुभ भाव कर्मकी बदौलत ही हैं; जीव तो अकर्ता ही है। क्या आपकी ही आचार्यपरम्परागत श्रुति ऐसी नहीं है कि पुरुषवेद नामक कर्म स्त्रीकी अभिलाषा करता है और स्त्रीवेद नामक कर्म पुरुषकी अभिलाषा करता है ? अतएव कोई भी जीव अब्रह्मचारी नहीं है; कर्म ही कर्मको इच्छा करता है। इसी प्रकार परघात नामक कर्म दूसरेको मारता है इसलिए कोई जोव हिंसक नहीं है; क्योंकि कर्म ही कर्मको मारता है।" कतिपय श्रमण इस प्रकार सांख्यसिद्धान्तके अनुसार प्ररूपणा करते हैं। उनके मतसे प्रकृति ही सब करती है; आत्मा सर्वदा अकर्ता है। ( स० ३३२-४०) वही सांख्यवादी आगे चलकर कहता है - 'ऊपर कहे दोषोंको हटानेके लिए कदाचित् यह कहा जाये कि, 'आत्मा, आत्म-द्वारा ही आत्माको रागादिभावसे मुक्त करता है; अतः अचेतन द्रव्यका चेतनद्रव्यमें परिणमन करनेका दोष नहीं आता। किन्तु इस कथनमें भी अनेक दोष है। आपके मतमें आत्मा नित्य और असंख्य प्रदेशवाला कहा गया है। ऐसी वस्तु हीन या अधिक नहीं की जा सकती। इसके अतिरिक्त आपके मतमें आत्मा ज्ञायक है और ज्ञान-स्वभावमें स्थित है। तो फिर अपने-आपसे ही अपनेमें परिणाम किस प्रकार उत्पन्न कर सकता है ?" (स० ३४१-४) सांख्यवादीका समाधान- इन समस्त आक्षेपों और तर्कोका उत्तर स्याद्वाद है । आत्माको एकान्ततः कर्ता या एकान्ततः अकर्ता मानते चलें तो प्रश्न कभी हल नहीं हो सकता। अतएव यही कहना ठीक है कि आत्मा ज्ञानस्वभावमें अवस्थित रहता है, फिर भी कर्म-जन्य मिथ्यात्व आदि भावोंके ज्ञानकालमें, अनादि कालसे ज्ञेय और ज्ञानका भेद न जानने के कारण, परको आत्मा ( स्व ) समझनेवाला, तथा खास तौरसे अज्ञानस्वरूप परिणामोंका जनक आत्मा ही कर्ता है। आत्माका यह कर्तृत्व तबतक ही है जबतक वह ज्ञान और ज्ञेयके विवेकज्ञानकी पूर्णतासे आत्माको
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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