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________________ २४ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न है। मिथ्यादृष्टि मनुष्य ही पर द्रव्यको अपना मानकर ( राग-द्वेष-मोहरूप परिणत होता है और इस प्रकार कर्म-बन्धनका ) कर्ता होता है। अगर वास्तवमें ही आत्मा कर्म और कर्मफलोंका कर्ता हो तो आत्माकी कभी मुक्ति ही न हो । सामान्य जनसमुदायकी यह समझ है कि देव, मनुष्य आदि प्राणियोंका कर्ता विष्णु है। इसी प्रकार श्रमणोंके मतमें भी आत्मा कर्ता है तो फिर सामान्य लोगोंकी तरह श्रमणोंको भी कभी मोक्ष नहीं प्राप्त होगा। क्योंकि ( विष्णु एवं आत्मा ) नित्य होनेके कारण देव और मनुष्य रूप लोकका सर्जन करता ही रहेगा । ( स० ३२१-३ ) ___ आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं - हाँ, पूर्वोक्त कथनसे यह मान लेना भी ठीक नहीं कि आत्मा सर्वथा अकर्ता है । आत्माको सर्वथा अकर्ता ठहरानेका इच्छुक वादी ( सांख्य ) यह मनवानेके लिए कि, आत्माम अज्ञानसे भी मिथ्यात्व आदि विभाव उत्पन्न नहीं होते, यह तर्क उपस्थित करता है - अगर मिथ्यात्व नामक जड़ कर्म आत्मामें मिथ्यात्वरूपी विभाव उत्पन्न करता है तो अचेतन प्रकृतिको चेतन जीवके मिथ्यात्व भावकी की भी मानना पड़ेगा। इस दोषको निवारण करनेके लिए कदाचित् यह कहा जाये कि, जीव स्वयं मिथ्यात्व भाव-युक्त नहीं होता, वरन् पुद्गलद्रव्यमें मिथ्यात्व उत्पन्न होता है तो फिर पुद्गल द्रव्य मिथ्यात्वयुक्त होगा, जीव नहीं। यह मान्यता तुम्हारे शास्त्रसे विरुद्ध है । यह दोष दूर करनेके लिए अगर यह कहो कि, जीव और प्रकृति दोनों मिलकर पुद्गल द्रव्यमें मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं तो दोनों मिथ्यात्वके कर्ता ठहरते हैं और दोनोंको ही उसका फल भोगना पड़ेगा। मगर जड़ द्रव्य फलका भोक्ता कैसे हो सकता है ? अतएव यही मानना योग्य है कि जीव या प्रकृति-कोई भी पुद्गल द्रव्यका मिथ्यात्व उत्पन्न नहीं करते; पुद्गल द्रव्य स्वभावसे ही, मिथ्यात्व आदि भावोंके रूपमें परिणत होता है। सचाई है भी यही । कर्म ही सब कुछ करता है। कर्म ही देता है और कर्म ही सब कुछ ले लेता है। जीव अकारक है ज्ञान, अज्ञान, शयन, जागरण, सुख, दुःख,
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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