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________________ पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु ८५ मध्यमें रहनेपर भी लिप्त नहीं होता । परन्तु सर्व द्रव्योंमें रागी अज्ञानी कीचड़में पड़े लोहे के समान कर्म-रजसे लिप्त होता है । शंख विविध जड़चेतन अथवा मिश्र द्रव्योंका भक्षण करता है, तथापि उसका श्वेतभाव कभी काला नहीं होता; इसी प्रकार जड़, चेतन और मिश्र द्रव्योंका उपभोग करनेवाले ज्ञानीका ज्ञान भी अज्ञानमें परिणत नहीं होता । परन्तु वही शंख जब स्वयमेव शुक्लताका त्याग करके कृष्णतामें परिणत होता है, तब उसकी शुक्लता नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार ज्ञानी जब ज्ञानस्वभावका त्याग करके अज्ञानरूप परिणत होता है, तब वह अज्ञानी बन जाता है । ( स० २१५-२३ ) सम्यग्दृष्टिकी व्याख्या - अगर कोई पुरुष आजीविका के हेतु राजाकी सेवा करता है तो राजा उसे विविध सुखोत्पादक भोग प्रदान करता है; इसी प्रकार जो जीव सुखके लिए कर्म- रजका सेवन करता है उसे वह विविध सुखोत्पादक भोग देता है । परन्तु वही पुरुष आजीविका के हेतु राजाका सेवन न करे तो राजा भी उसे सुखोत्पादक भोग नहीं देता; इसी प्रकार जो सम्यग्दृष्टि पुरुष विषयभोगके लिए कर्म - रजका सेवन नहीं करता, उसे वह विविध सुखोत्पादक भोग नहीं देता ( स० २२४ -७ ) सात प्रकारका भय न रहनेके कारण जो निर्भय बन गया है, वही निःशंक जीव सम्यग्दृष्टि है । कर्मबन्धन करानेवाले मोहके कारणभूत मिथ्यात्व आदि चार पादोंको जो छेद डालता है, वह निःशंक आत्मा सम्यग्दृष्टि है । वह कर्मफलों तथा सब प्रकारके धर्मोकी जो कांक्षा नहीं करता, निष्कांक्ष जीव सम्यग्दृष्टि है । १. शंख द्वीन्द्रिय जीव है । २. इहलोक परलोक, वेदना, अरक्षा, अगुप्ति, मरण और आकस्मिक ये सात भय हैं ।
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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