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________________ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न पहचानता और चूँकि वह आत्माको नहीं जानता, अतएव अनात्माको भी नहीं जानता। फिर उसे ज्ञानी किस प्रकार कहा जा सकता है ? (स० १९७-२०२) कर्म के निमित्तसे आत्मामें उत्पन्न होनेवाले समस्त विभावोंका त्याग करके, स्वभावभूत, चेतनरूप, नियत, स्थिर और एक भावको ही ग्रहण करो । जहाँ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान -यह सब भेद हट जाते हैं और एक ही पद शेष रहता है, वही परमार्थ है । उसे पाकर मनुष्य निर्वृत होता है। किसी भी साधनका प्रयोग करके ज्ञानगुणविहीन पुरुष इस पदको नहीं पा सकते । तुम्हें अगर कर्मपरिमोक्षकी इच्छा है तो तुम उसी पदको स्वीकार करो। उसी पदमें निरन्तर लीन रहो । उसीमें नित्य सन्तुष्ट रहो। उसीमें तृप्त रहो। ऐसा करनेसे तुम्हें उत्तम सुख प्राप्त होगा । आत्माको ही अपना निश्चित धन जाननेवाला ज्ञानी पर-पदार्थको अपना क्यों कहेगा ? अगर पर-द्रव्य मेरा होता तो मैं उसके समान जड़ बन जाता; मैं तो ज्ञाता ही हूँ, अतएव किसी भी परद्रव्यका परिग्रह मुझे नहीं होना चाहिए । भले ही उसका छेदन हो, भेदन हो, हरण हो, नाश हो या कहीं भी वह चला जाये, वह परद्रव्य मेरा तो है ही नहीं। ज्ञानी अपरिग्रही तथा निरीह होनेके कारण न धर्म को इच्छा करता है, न अधर्मकी इच्छा करता है, न खान-पानकी इच्छा करता है और न अन्य किसी पदार्थकी इच्छा करता है। अपने ज्ञायक-स्वभावमें नियत वह ज्ञानी सर्वत्र निरालम्ब रहता है। (स० २०३-१४) . प्राप्त विषयभोगोंमें उसकी हेयबुद्धि है और अनागत भोगोंकी उसे कांक्षा नहीं है, कर्मके निमित्तसे आत्मामें उत्पन्न होनेवाले और समय-समय नष्ट होनेवाले वेद्य-वेदक भावोंको वह जानता है परन्तु उनको कभी आकांक्षा नहीं करता । बन्ध और उपभोगके निमित्तभूत संसार तथा देहविषयक अध्यवसानोंमें ज्ञानीको राग नहीं होता। कोचड़में पड़ा हुआ भी सोना कटता नहीं है, उसी प्रकार समस्त पदार्थों में रागहीन ज्ञानी कर्मोके
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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