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________________ द्रव्यविचार. है। उनका सुख सब सुखोंमें परम है । ऐसा माननेवाला ही भव्य (मोक्षका अधिकारी) है। जो ऐसा नहीं मानता वह अभव्य है। (प्र. १, ५९-६२ ) ____ मनुष्यों, असुरों और देवोंके अधिपति इन्द्रियोंको सहज पीड़ासे पीडित होकर, उस पीडाको सहन न कर सकनेके कारण रम्य विषयोंमें रमण करते है। जिसे विषयोंमें रति है, उसके लिए दुःख स्वाभाविक ही समझो। ऐसा न होता तो विषयों के लिए उसकी प्रवृत्ति हो सम्भव नहीं थी। वहाँपर भी स्वभावतः भिन्न-भिन्न इन्द्रियों-द्वारा भोग्य इष्ट विषयोंको पाकर सुखरूपमें परिणत होनेवाला आत्मा स्वयं ही सुखका कारण है; देह सुखका कारण नहीं है। यह निश्चित समझो कि देह इस लोकमें या स्वर्गमें जीवको किसी प्रकारका सुख नहीं दे सकता । जीव विभिन्न विषयोंके अधीन होकर, आप ही स्वयं सुख या दुःखरूपमें परिणत होता है । इस प्रकार जब आत्मा ही स्वयं सुखरूप है तो फिर विषयोंका क्या प्रयोजन है ? जिसे अन्धकारका नाश करनेवाली दृष्टि ही प्राप्त हो गयी है, उसे दीपककी क्या आवश्यकता है ? जैसे आकाशमें आदित्य देव स्वयं ही तेजरूप और उष्ण है, उसी प्रकार मुक्त आत्मा ( सिद्ध देव ) स्वयं ही • ज्ञानमय और सुखस्वरूप है । (प्र० १, ६३-८ ) ____ कर्मोकी मलिनतासे मुक्त, पूर्ण दर्शन और पूर्ण ज्ञानसे युक्त वह जीव, आयु पूर्ण होनेपर लोकके अग्रभागपर पहुँचकर इन्द्रियातीत, अनन्त, बाधारहित और आत्मिक सुख प्राप्त करता है । (पं० २८) प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश - इन चार प्रकारके बन्धोंसे पूर्णरूपेण मुक्त जीव ऊर्ध्व गमन करता है। अन्य सब जीव पूर्व, पश्चिम, १. जीवके साथ जिस समय कर्म-परमाणुओंका बन्ध होता है उसी समय उनमें चार अंशोंका निर्माण होता है। कर्म-परमाणुओंमें ज्ञानको प्रावरण करनेका या दर्शनको रोकनेका या अन्य किसी प्रकारका स्वभाव उत्पन्न हो जाना प्रकृतिबन्ध है। अमुक समय तक उस स्वभावके बने रहनेको कालमर्यादा
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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