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________________ ५७ द्रव्यविचार ही वह किसीको उत्पन्न नहीं करती, अतएव किसीका कारण भी नहीं है। मुक्त जीव शाश्वत है, फिर भी संसारावस्थाको अपेक्षा उसका उच्छेद है; पूर्णताकी उत्पत्तिकी दृष्टिसे वह भव्य-मुक्त होने योग्य है, फिर भी अशुद्ध-अवस्थामें पुनः उत्पत्तिकी अपेक्षा वह अभव्य है; पर-स्वभावसे वह शून्य है, फिर भी स्व-स्वभावको अपेक्षा वह पूर्ण है। विशुद्ध केवल ज्ञानकी अपेक्षासे वह विज्ञानयुक्त है, किन्तु अशुद्ध इन्द्रियज्ञानादिको अपेक्षासे विज्ञानरहित है । मुक्त-अवस्थामें जीवका अभाव नहीं होता। (पं० ३६-७) उसके स्वरूपका घात करनेवाले घातिकर्म' नष्ट हो गये हैं। उसका अनन्त उत्तम वीर्य है । उसका तेज परिपूर्ण है। वह इन्द्रिय ( व्यापार ) रहित होकर आप ही ज्ञानरूप और सुख-स्वरूप बना है। अब उसे देहगत सुख या दुःख नहीं है, क्योंकि उसने अतीन्द्रियत्व प्राप्त कर लिया है। सर्वज्ञता - अपने-आप ही ज्ञान-रूप परिणत हुए आत्माको समस्त द्रव्यों और उनके समस्त पर्यायोंका प्रत्यक्ष होने लगा है। आत्माको अवग्रहादि क्रिया-पूर्वक क्रमिक ज्ञान नहीं होता। अब उसके लिए कोई वस्तु १. पाठ कर्मों में शानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय, यह चार धातिकर्म कहलाते हैं, क्योंकि यह आत्माके गुणोंका साक्षात् घात करते हैं । २. शान और दर्शन रूप तेज 1 - टीका। ३. इन्द्रियादिसे अब आत्माकी शान आदि क्रियाएँ नहीं होती। - टीका। ४. इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाले शानके चार भेद हैं । यह चार भेद ज्ञानके क्रमिक अवस्थाभेदके सूचक हैं । धने अन्धकारमें किसी वस्तुका स्पर्श होनेपर यह कुछ है' इस प्रकारका अव्यक्त प्राथमिक शान 'अवग्रह' कहलाता है । तत्पश्चात् उस वस्तुका विशेषरूपमें निश्चय करनेके लिए जो विचारणा होती है, वह ईहा है। जैसे - यह रस्सी है या साँप, इस तरहके संशयके अनन्तर यह रस्सी होनी चाहिए, साँप होता तो फकारता।' ईहा-द्वारा शात वस्तुमें विशेषका निश्चय हो जाना 'अवाय है । अवाय ज्ञान जब अत्यन्त दृढ़ अवस्थाको प्राप्त होता है, और जिसके कारण वस्तुका चित्र हृदयमें अंकित
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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