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________________ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न निर्वाण है और वही सिद्ध है । उसे नमस्कार हो। चाहे गृहस्थ हो, चाहे मुनि, जो इस उपदेशको समझता है, वह शीघ्र ही 'प्रवचनसार' अर्थात् आगमका रहस्य प्राप्त कर लेता है। (प्र० २,७४-५) पारमार्थिक सुख-शुद्ध भावोंके रूपमें परिणत हुए आत्माको सर्वोत्कृष्ट, आत्मासे ही उत्पन्न होनेवाला, इन्द्रियोंके विषयोंसे अतीत, उपमारहित, अनन्त और निरवच्छिन्न परम सुख प्राप्त होता है। जो मुनि जीवादि नवपदार्थों एवं उनका निरूपण करनेवाले शास्त्रवचनोंको भली भाँति जानता है, संयम और तप से युक्त होता है, जो राग-रहित है, तथा सुख-दुःखमें समभाव धारण करता है, वह शुद्ध भाववाला कहलाता है। (प्र०१, १३-४ ) ४. प्रात्माका शुद्ध स्वरूप स्वयम्भू-ज्ञान और दर्शनको रोकनेवाले (ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण ), वीर्य आदिके प्रकट होनेमें विघ्न करनेवाले ( अन्तराय ), और दर्शन तथा चारित्रमें रुकावट डालनेवाले ( मोहनीय ) कर्म-रूपी रजसे रहित और दूसरोंकी सहायताके बिना-स्वयं ही शुद्ध भावोंसे विशुद्ध बना हुआ आत्मा ज्ञेयभूत पदार्थोंका पार पाता है । इस प्रकार अपनी ही बदौलत अपने मूलस्वभावको प्राप्त, सर्वज्ञ तथा तीनों लोकोंके अधिपतियोंद्वारा पूजित आत्मा ही 'स्वयम्भू' कहलाता है। आत्माके शुद्ध स्वभावको यह उपलब्धि अविनाशशील है और उसकी अशुद्धताका विनाश अन्तिम है वह फिर कभी उत्पन्न नहीं हो सकती। आत्माकी सिद्ध-अवस्था किसी अन्य कारणसे उत्पन्न नहीं होती; अतएव वह किसीका कार्य नहीं है; साथ १. 'जानकर श्रद्धाके साथ तदनुसार आचरण करता है।'-टीका । २. इन्द्रिय और मनकी अभिलाषासे तथा छह प्रकारके जीवोंकी हिंसासे निवृत्त होकर अपने स्वरूप में स्थित होना संयम है।-टीका। ३. बाह्य एवं आन्तरिक तपोबलके कारण काम-क्रोध आदि शत्रुओं-द्वारा भखण्डित प्रतापवाले शुद्ध आत्मामें विराजमान होना तप है।-टाका ।
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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