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________________ ५० कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न पुण्यका बन्ध होता है और अशुभ परिणामसे पाप बंधता है। पर-पदार्थके प्रति शुभ या अशुभ-किसी प्रकारका परिणाम न होना दुःखके क्षयका कारण है। (प्र. २, ७५-८९) ___ जीवका कर्तृत्व-उदय अवस्थाको प्राप्त ( अर्थात् फलोन्मुख हुए) कर्मको भोगते समय जीवमें जो परिणाम होता है, उसका कर्ता जीव ही है। उदयभाव, उपशमभाव, क्षयभाव या क्षयोपशमभाव', कर्मके बिना जीवमें नहीं हो सकते। यह चारों भाव कर्मकृत है । यहाँपर शंका हो सकती है कि यह भाव अगर कर्मकृत हैं तो इनका कर्ता जीव कैसे कहा जा सकता है ? इसलिए जीव पारिणामिक भावके सिवा और किसी भी भावका कर्ता नहीं है; ऐसा कहना चाहिए। इस शंकाका समाधान यह है कि जीवके भावोंकी उत्पत्तिमें कर्म निमित्त कारण हैं और कर्मके परिणामको उत्पत्तिमें जीवके भाव निमित्त कारण हैं। अलबत्ता, जीवके भाव कर्म-परिणाममें उपादान कारण नहीं हैं और न कर्मपरिणाम जीवके भावोंमें ही उपादान कारण है। आत्माका जो परिणाम है, वह तो स्वयं आत्मा हो है। परिणामकी यह क्रिया जीवमयी ही है। जीवने ही वह क्रिया की है, अतः वह जीवका ही कर्म है। परन्तु जो द्रव्यकर्म , जीवके साथ १. उदय एक प्रकारकी आत्माकी कलुषता है, जो कर्मके फलानुभवनसे उत्पन्न होती है। उपशम सत्तागत कर्मके उदयमें न आनेसे होनेवाली पात्माकी शुद्धि है । कर्मके प्रात्यन्तिक क्षय होनेसे प्रकट होनेवाली आत्माकी विशुद्धि क्षयभाव कही जाता है। क्षयोपशम भी एक प्रकारकी आत्मशुद्धि है, जो सर्वघात स्पर्द्धकोंके उदयाभावी क्षय तथा आगे उदयमें आनेवाले स्पर्द्धकोंके सदवस्था रूप उपशम और देशघाती स्पर्थकोंके उदयसे होती है। २. किसी द्रव्यका अपने स्वस्वरूपमें परिणमन करना पारिणामिकभाव कहलाता है। ३. कर्म दो प्रकार के हैं-जीवके जिन रागादिरूप भावोंसे द्रव्यकर्मका बन्धन होता है, वे भाव भावकर्म तथा बननेवाला पुद्गलद्रव्य द्रव्यकर्म कहलाता है।
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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