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________________ द्रव्यविचार ६. जीव-जोव दो प्रकारके हैं-संसारी और मुक्त। दोनों ही प्रकारके जीव अनन्त हैं । वे चेतनात्मक हैं और उपयोग-बोध व्यापाररूप परिणामवाले हैं। संसारी जीव सदेह हैं और मुक्त जीव अदेह है। ( संसारमें ) जो बल, इन्द्रिय, आयुष्य और उच्छ्वास इन चार प्राणोंसे जीवित है, जीवित रहेगा और जीवित था, वह जीव है। जिनका प्राणधारण सर्वथा रह गया है, जिनमें उक्त चार प्राणोंका अभाव है और जो देहसे सर्वथा मुक्त हो गये हैं, वे सिद्ध जीव कहलाते हैं। वाणीद्वारा उनका वर्णन करना शक्य नहीं है। (पं० १०७, ३०, ३५ ) ____जीव असंख्यात प्रदेशमय है और समस्त लोकको व्याप्त करके भी रह सकता है, परन्तु सभी जीवोंको इतना विस्तार नहीं प्राप्त होता। पद्मराग मणिको दूधमें डाल दिया जाय तो दूधके परिमाणके प्रमाणमें उसका प्रकाश होता है; इसी प्रकार जीवात्मा जिस देहमें रहता है उसीके अनुसार प्रकाशक होता है। जैसे एक शरीरमें आरम्भसे अन्त तक एक ही जीव रहता है, उसी प्रकार सर्वत्र सांसारिक अवस्थाओंमे एक वही जीव रहता है । यद्यपि जीव अपने गृहीत शरीरसे अभिन्न-सा दिखाई देता है, पर वास्तवमें देह और जीव भिन्न-भिन्न हैं, बात सिर्फ यह है कि अपने अशुद्ध अध्यवसायोंके कारण कर्म-रजसे मलीन बनकर, जीव अपने-आपको शरीरसे अभिन्न मानकर बरतता है । ( पं० ३१-४) चेतनागुण और चेतनाव्यापार-जीवका चेतनागुण तीन प्रकारका है-(१) स्थावर काय जैसे कतिपय जोव कर्मके फलका ही अनुभव करते हैं, उनकी चेतना 'कर्मफल चेतना' कहलाती है। (२) त्रस जीव कर्म भी कर सकते हैं, उनकी चेतना कर्मचेतना' कहलाती है। ( ३ ) प्राणीपन अर्थात् सदेह अवस्थाके परे पहुँचे हुए सिद्ध जीव शुद्ध ज्ञानचेतनाका ही अनुभव करते हैं । (पं० ३९) जीवका चेतनाव्यापार ज्ञान और दर्शनके भेदसे दो प्रकारका है। वस्तुको विशेष रूपसे जाननेवाला व्यापार ज्ञान कहलाता है और सामान्य
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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