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________________ [ २६ ] " है कि खेती मूल प्राजीविका है। मूल आजीविका वह कह - लाती है, जिस पर अन्य अनेक आजीविकाएँ निर्भर हो । कपास. रुई, सूत, जूट, बुनाई, सिलाई, कपड़े के मिल, बजाजी का व्यवसाय, इस संबंध के तमाम आढ़त आदि के धंधे, तथा समस्त अनाज संबंधी व्यवसाय, हलवाई की दुकानें, होटल ढावा आदि-आदि कृषिकर्स पर अवलंबित हैं। अगर किसान खेती करना छोड़ दे तो दुनिया के अधिकांश व्यापारी चौपट हो जाएँ। इस दृष्टि से व्यापार का मूल भी खेती ही ठहरता है । ऐसी स्थिति में विभिन्न आजीविकाओं के साथ तुलना करने पर कृषि की उत्कृटता सिद्ध होती है । निःसंदेह कृषि जीवन है और कृषक जीवनदाता है। लोग राजा महाराजाश्र को दाता कहते हैं, मगर ईमानदारी से तो किसान ही अन्नदाता है । प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय । जनधर्म संबंधी श्राचारविषयक विभ्रम उत्पन्न होने के कारण पर एक निगाह डालना शायद श्रप्रासंगिक न होगा । मेरे विचार से याचारविषयक विभ्रम का प्रधान कारण यह है कि हम जैनधर्म को एकान्त निवृत्तिमय मान वैठे हैं । धर्मोपदेशक भी प्रायः इसी रूप में धर्म का स्वरूप प्रकट करते हैं । लेकिन एकान्त निवृत्ति क्या कहीं संभव है ? निवृत्ति, प्रवृत्ति के विना और प्रवृत्ति, निवृत्ति के विना असंभव है। अक्सर लोग समझते हैं, हिंसा निवृत्ति रूप है, लेकिन वास्तव में
SR No.010399
Book TitleKrushi Karm aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherShobhachad Bharilla
Publication Year
Total Pages103
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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