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________________ [ २५ ] है, क्योंकि पैदा किया हुआ सारा अनाज वह स्वयं नहीं खा लेता । यही वात पशु-पालन के संबंध में भी कही जा सकती है। मगर सूद का धंधा करने वाला पुरुष स्वार्थसाधन के सिवा और क्या करता है ? ऐड़ी से चोटी तक पसीना वहा कर किसान जो अन्न उपजाता है, उस पर सूदखोर का जीवन निर्भर है, फिर भी वह किसान को भरपेट नहीं खाने देता। समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों के परिश्रम पर वह गुलछरें उड़ाता है, मगर उनमें से किसी की मूलभूत आवश्यक-- ताओं की पूर्ति के लिए वह कुछ भी आत्मदान नहीं करता। वह अगर कुछ करता है तो सिर्फ समाज में विषमता का विष ही फैलाता है। अतएव उसका कार्य जगत् के लिए कल्याणकारी न होकर अकल्याणकारी ही है। व्यापार अगर सामाजिक भावना का विरोध न करते हुए, चल्कि समाजकल्याण की दृष्टि को साथ लेकर किया जाय तो वह भी उपयोगी और श्रावकर्स से अविरुद्ध है, मगर ऐसा होता नहीं है। व्यापारीवर्ग व्यक्तिगत लाभ के लिए ही व्यापार करता है। यह बात इस युद्ध के समय में अत्यन्त स्पष्ट हो गई है । लोग भूखे सरे पर व्यापारियों का हृदय नहीं पसीजा। उन्होंने मुनाफे के लोभ में जनता के जीवन-मरण की चिन्ता नहीं की । कम-बढ़ रूप में सदा ही यह होता रहता है। लेकिन खेती में यह संभावना नहीं है। किसान अत्यधिक अनाज का, लम्बे समय तक संग्रह नहीं कर सकता। व्यापार की अपेक्षा खेती की महत्ता इसलिए भी अधिक
SR No.010399
Book TitleKrushi Karm aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherShobhachad Bharilla
Publication Year
Total Pages103
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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