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________________ [ १३ ] लिए न जाने कितना प्रारंभ करना पड़ता है। इस महारंभ से वचने के लिए वेश्यागमन करके ही कामवासना तृप्त क्यों न कर ली जाय ? थोड़े से पैसे खर्च किये और अनेकानेक पापों से बचे। कहाँ तो पापों की परम्पग और कहाँ वेश्या का अल्प पाप ! इस प्रकार ऊपरी दृष्टि से वेश्यागमन में अल्प पाप और विवाह करने में महापाप भले ही प्रतीत होता हो, लेकिन कोई भी विवेकशील पुरुष इस व्यवस्था का समर्थन नहीं कर सकता। धर्मशास्त्रों से तो इसका समर्थन हो ही नहीं सकता। तात्पर्य यह है कि अल्पारम्भ और महारंभ की मीमांसा वाह्य दृष्टि से और तात्कालिक कार्य से नहीं की जानी चाहिए। संसार की व्यवस्था और समाजकल्याण की दृष्टि भी इसमें गर्मित है। इसके अतिरिक्त, थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाय कि बाजार से धान्य लाकर खाना ही धर्मसंगत है और धान्य उपार्जन करना अधर्म है, तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि बाजार में धान्य आएगा कहाँ से? अगर सभी मनुष्य इस धर्म को अगीकार कर ले और खेती करना छोड़ दें तो जगत् की क्या स्थिति होगी? क्या धर्म के प्रचार का फल प्रलय होना चाहिए? जिस धर्म को अगीकार करने से जगत् में हाय-हाय मच जाए, मनुष्य भूखेतड़फ़-तफ़ कर प्राण दे दें, वह धर्म क्या विश्वधर्म वनने के योग्य है? अथवा वे
SR No.010399
Book TitleKrushi Karm aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherShobhachad Bharilla
Publication Year
Total Pages103
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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