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________________ की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्षपक श्रेणि को वेही कर सकते हैं जिनको कि वज्र-कपभनाराच संहनन का उदय, होता है.। इसीसे ग्यारहवें गुणस्थान की उदय-योग्य ५६ कर्म-प्रकृतियों में से ऋपभनाराच और नाराच दोसंहननों को घटाकर शेष ५७ कर्म-प्रकृतियों का उदय वारहवें गुणस्थान में मानाजाता है। इन ५७ कर्म प्रकृतियों में से भी निद्राका तथा प्रचला का उदय वारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में नहीं होता। इस से उन दो कर्म-प्रकृतियों को छोड़कर शेष ५५ कर्म-प्रकृतियों का उदय वारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में माना जाता है। ज्ञानावरण ५, अन्तराय ५ और दर्शनावरण ४, सब मिलाकर १४ कर्म-प्रकृतियों का उदय वारहवे गुणस्थान के अन्तिम समय से आगे नहीं होता। इससे पूर्वोक्त ५५ कर्मप्रकृतियों में से उक्त १४ कर्म-प्रकृतियों के निकल जाने से शेष ४१ कर्म-प्रकृतियाँ रहती हैं । परन्तु तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करनेवालों में जो तोर्थकर होनेवाले होते हैं उनको तीर्थकरनामकर्म का उदय भी हो जाता है। श्रतएव पूर्वोक्त ४१ और तीर्थकरनामकर्म, कुल ४२ कर्म-प्रकृतियाँ तेरहवे गुणस्थान में उदय को पा सकती हैं ॥ २०॥ तित्थुदया उरलाथिरखगइदुगपरित्ततिगछलठाणा । अगुरलहुवन्नचउ-निमिणतेयकम्माइसंघयणं ॥ २२॥ तीर्थोदयादादारिकास्थिरखगतिद्विकप्रत्येकत्रिकषट्संस्थानानि अगुरुलघुवर्णचतुष्कनिर्माणतेजःकर्मादिसंहननम् ॥२१॥ दूसरसूसरसायासारगयरं च तीस-बुच्छेत्रो। चारस अजोगि सुभगाइज्जजसन्नयरवेणियं ॥ २२ ॥
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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