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________________ (५६) उन मनुष्यों को तथा तिर्यञ्चों को, वैक्रियशरीरनाम-कर्म का तथा वैक्रिय-अगोपाग-नामकर्म का उदय अवश्य रहता है इसलिये, यद्यपि यह शङ्का हो सकती है कि पाँचव तथा छठे गुणस्थानकी उदय-योग्य प्रकृतियों में वैक्रिय-शरीर-नाम-कर्म तथा वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग नामकर्म इन दो प्रकृतियों की गणना क्यों नहीं की जाती है ? तथापि इस का समाधान इतना ही है कि, जिनको जन्मपर्यन्त वैक्रिय शरीर-नामकर्म का तथा वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग-नामकर्म का उदय रहता है उनकी (देव तथा नारको की) अपेक्षा से ही उक्त दो प्रकृतियों के उदयका विचार इस जगह किया गया है । मनुष्यों में और तिर्यञ्चों में तो कुछ समय के लिये ही उक्त दो प्रकृतियों का उदय हो सकता है, सो भी सब मनुष्यों और तिर्यचा में नहीं। इसी से मनुष्यों और तिर्यञ्चों की अपेक्षा से पाँचवें तथा छठे गुणस्थान में, उक्त दो कर्म-प्रकृतियों के उदय का सम्भव होने पर भी, उस की विवक्षा नहीं की है। जिन ८७ कर्म-प्रकृतियों का उदय पाँचवें गुणस्थान में माना जाता है उन में से तिर्यञ्च-गति, तिर्यञ्च-आयु, नीचगोत्र, उद्योत-नामकर्म और प्रत्याख्यानावरण-कषाय-चतुष्क इन ८ कर्म-प्रकृतियों को छोड़कर, शेष ७६-कर्म-प्रकृतियों का उदय, छठे गुणस्थान में हो सकता है । तिर्यञ्च-गतिआदि उक्त पाठ कर्म-प्रकृतियों का उदय, पाँचवें गुणस्थान के प्रान्तम समय तक ही हो सकता है, आगे नहीं । इस का कारण यह है कि, तिर्यञ्च-गति, तिर्यञ्च-श्रायु और उद्योतनामकर्म इन तीन प्रकृतियों का उदय तो तिर्यञ्चों को ही होता है परन्तु तियंञ्चों में पहले पाँच गुणस्थान ही हो सकते हैं, आगे के गुणस्थान नहीं । नीच गोत्र-का उदय
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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