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________________ ( ४७ ) गुणस्थान में ५६ - कर्म प्रकृतियों के अन्ध का भी पक्ष ऊपर कहा गया है और उसमें देव आयु की गणना की गई है; तथापि यह समझना चाहिये कि छुट्टे गुणस्थान में प्रारम्भ किये हुये -देव-आयु के बन्ध की सातवें गुणस्थान में जो समाप्ति होती है उसी की अपेक्षा से सातवे गुणस्थान की बन्ध-योग्य ५६कर्म प्रकृतियों में देव आयु की गणना की गई है। सातवें गुणस्थान में देव श्रायु के बन्ध का प्रारम्भ नहीं होता और आठवे आदि गुणस्थानों में तो देव श्रायु के बन्ध का प्रारम्भ और समाप्ति दोनों नहीं होते । श्रतएव देव - श्रायु को छोड़ ५६ - कर्म - प्रकृतियाँ आठवे गुणस्थान के प्रथम भाग में वन्ध-योग मानी जाती हैं । श्राठर्वे तथा नवर्वे गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण है। आठवे गुणस्थान की स्थिति के सात भाग होते हैं । इन में से प्रथम भाग में, दूसरे से लेकर छट्टे तक पाँच भागों में, और सातवें भाग में जितनी जितनी कर्म- प्रकृतियों का वन्ध होता है; वह नववीं तथा दसवीं गाथा के अर्थ में दिखाया गया है । इस प्रकार नववे गुणस्थान की स्थिति के पाँच भाग होते हैं । उनमें से प्रत्येक भाग में जो • बन्ध-योग्य कर्म-प्रकृतियाँ है, उनका कथन ग्यारहवीं गाथा के अर्थ में कर दिया गया है ॥ ६ ॥ १०११ ॥ चउदसणुच्चजसमाण विग्घदसगंति सोल सुच्छेश्रो । ' तिसु सायबंध छेओ सजोगिबंधंतु तो श्र ॥ १२ ॥ (चतुर्दर्शनोच्चयशेोज्ञानविघ्नदशकमिति षोडशोच्छेदः । त्रिषु सातबन्धश्छेदः सयोगिनि वन्धस्यान्तो ऽनन्तश्च ॥ १२ ॥ ) . • श्रर्थ- दसवें गुणस्थान की वन्ध-योग्य १७ कर्म-प्रकृतियों में से ४- दर्शनावरण, उच्चगोत्र, यशः कीर्त्तिनामकर्म,
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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