SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ " (३८) तथा बहुत कर नारक जीवों के, एकेन्द्रिय जीवों के और विकलेन्द्रिय जीवों के योग्य हैं । इसी से ये सोलह कर्म प्रकृतियाँ मिथ्यात्व - मोहनीयकर्म के उदय से ही बाँधी जाती हैं। मिथ्यात्व - मोहनीयकर्म का उदय पहले गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है दूसरे गुणस्थान के समय नहीं । श्रतएव मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से बँधनेवाली उक्त १६-कर्म-प्रकृतियों का बन्ध भी पहले गुणस्थान के अन्तिम समयतक हो सकता है दूसरे गुणस्थान के समय नहीं । इसी लिये पहले गुणस्थान में जिन ११७- कर्म - प्रकृतियों का वन्ध कहा गया है उन में से उक्त १६- कर्म- प्रकृतियों को छोड़ कर शेष १०१ - कर्म - प्रकृतियों का बन्ध दूसरे गुणस्थान में माना जाता है । 4 तिर्यञ्चत्रिकशब्द से तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्च श्रानुपूर्वी और तिर्यञ्चश्रायु इन तीन कर्म- प्रकृतियों का ग्रहण होता है । स्त्यानर्द्धित्रिक शब्द से निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानर्द्धि इन तीन कर्म - प्रकतियों का तथा दुर्भगत्रिक शब्द से दुर्भगनामकर्म, दुःखरनामकर्म और अनादेयनामकर्म इन तीन कर्म-प्रकृतियों का ग्रहण होता है । श्रनन्तानुबन्धि चतुष्कशब्द, अनन्तानुबन्धिक्रोध, अनन्तानुबन्धिमान, अनन्तानुबन्धि माया और अनन्तानुबन्धिलोम इन चार कपायों का वो'धक- है । मध्यम संस्थान-चतुष्कशब्द -आदि के और अन्त के संस्थान को छोड़ मध्य के शेष चार संस्थानों का बोधक है । जैसे:-न्यग्रोधपरिमडल- संस्थान, सादिसंस्थान, वामनसंस्थान और कुव्जसंस्थान । इसी तरह मध्यम संहननचतुष्क शब्द से श्रादि और अन्त के संहनन के सिवा बाघ के चार संहनन ग्रहण किये जाते हैं। वे चार संहनन ये हैं
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy