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________________ . . . . (३१) की गुण-श्रेणि से और आयुकर्म की यथास्थितश्रेणि से . निर्जरा करना उसे "शैलेशीकरण" कहते हैं। शैलेशीकरण को प्राप्त करके अयोगि-केवलशानी उसके अन्तिम समय में वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु इन चार भवोपमाहि-कमर्मों का सर्वथा क्षय कर देते हैं। और उन कर्मों का क्षय होते ही वे एकसमयमात्र में जु-गति से ऊपर की ओर सिद्धि-क्षेत्र में चले जाते हैं। सिद्धि-क्षेत्र, लोक के ऊपरके भाग में वर्तमान है। इस के आगे किसी आत्मा या पुद्गल की गति नहीं होती। इसका कारण यह है कि आत्मा को या पुगल को गति करने में धर्मास्तिकाय-द्रव्य की सहायता अपेक्षित होती है। परन्तु, लोक के श्रागे अर्थात्श्रलोक में धर्मास्तिकाव-द्रव्य का प्रभाव है । कर्म-मल के हट जाने से शुद्ध आत्मा की ऊर्ध्व-गति इस प्रकार होती है जिस प्रकार कि मिट्टी के लेपों से युक्त तुम्बा, लेपो के हट जाने पर जलके तलसे ऊपरकी ओर चला आता है ॥ १४ ॥ ___ गुणस्थानों का स्वरूप कहा गया। अव वन्ध के स्वरूप को दिखा कर प्रत्येक गुणस्थान में बन्ध-योग्य कर्म-प्रकृतियों को १० गाथाओं से दिखाते हैं: अभिनव-कम्म-ग्गहणं, बंधो श्रोहेण तत्थवीस-सयं । तित्थयराहारस-दुग-धज्ज मिच्छमि सत्तर-सयं॥३॥ ' (अभिनव-कम-ग्रहणं बन्धं श्रोधेन तत्र विंशति-शतम् । '- तीर्थकराहारक-द्विक-वर्ड मिथ्यात्वे सप्तदश-शतम् ॥३॥) अर्थ-नये कर्मों के ग्रहण को बन्ध कहते हैं। सामान्यरूप से-अर्थात् किसी खास गुणस्थान की अथवा किसी जीव : विशेष की विवक्षा किये विना ही,बन्ध में १२० कर्म-प्रकृतियाँ
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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