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________________ ( २६ ) श्रनुत्तर विमानवासी देव, भगवान् को शब्द द्वारा न पूछकर मन से ही पूछता है । उस समय केवलिभगवान् उसके प्रश्न का उत्तर मन से ही देते हैं । प्रश्न करनेवाला मनः पर्यायज्ञानी या श्रनुत्तरविमानवासी देव, भगवान् के द्वारा उत्तर देने के लिये संगठित किये गये मनेा द्रव्यों को अपने मनःपर्यायज्ञान से. अथवा अवधिज्ञान से प्रत्यक्ष देख लेता है । और देखकर मनोद्रव्यों की रचना के आधारसे अपने प्रश्न का उत्तर अनुमान से जाम लेता है । केवलिभगवान् उपदेश देने के लिये वचनयोग का उपयोग करते हैं । और हलन चलन श्रादि क्रियामें काययोग का उपयोग करते है ||१३|| प्रयोगकेवलिगुणस्थान - जो केवलिभगवान्, योगे से. रहित हैं वे प्रयोगिकेवली कहाते हैं तथा उन का स्वरूप - विशेष " श्रयोगिकेयलिगुणस्थान" कहाता है । तीनों प्रकार के योग का निरोध करने से प्रयोगअवस्था प्राप्त होती है । केवलज्ञानिभगवान् सयोगि- श्रवस्था मैं जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट कुछ कम करोड़ पूर्व तक रहते हैं । इस के बाद जिन केवली भगवान् के वेदनीय, नाम और गोत्र. इन तीन कर्मों को स्थिति तथा पुल (परमाणु), आयुकर्म की स्थिति तथा परमाणुओं की अपेक्षा अधिक होते है. वे. केवलज्ञानी समुद्धात करते हैं । और समुद्धात के द्वारा वेदनीय, नाम, और गोत्र कर्म की स्थिति तथा परमाणुओं. को- श्रायुकर्म की स्थिति तथा परमाणुओं के बराबर कर लेते हैं । परन्तु जिन केवलज्ञानियों के वेदनीय आदि उक्त तीन कर्म, स्थिति में तथा: परमाणुओं में आयुकर्म के बराबर है : ; " ►
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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