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________________ (२५) धत भी उस उस गुणस्थान को पा कर वह जीव उन उन फर्म प्ररुतियों के बन्ध को, उदय को श्रार उदीरणा को शुरू कर देता है। श्रद्धा-क्षय से- अर्थात् गुणस्थान का काल समाप्त हो जाने से गिरनेवाला कोई जीव छठे गुणस्थान 'तक पाता है,कोई पाँचवें गुणस्थान में, कोई चौथै गुणस्थान में और कोई दूसरे गुणस्थान में भी प्रांता है। यह कहा जा चुका है कि उपशमश्रेणिवासा जीव ग्यारहवें गुणस्थान से अंवश्य ही गिरता है। इसका कारण यह है कि उसी जन्म में मोक्ष की प्राप्ति क्षपक-श्रेणि के विना नहीं होती। एक जन्म में दो से अधिक वार उपशम-थेणि नहीं फी जा सकती और क्षपक-श्रेणि तो एक बार ही होती है। जिसने एक बार उपशम-श्रेणि की है वह उस जन्म में क्षपफश्रेणि कर मोक्ष को पा सकता है। परन्तु जो दो बार उपशम-श्रेरिण कर चुका है वह उस जन्म में क्षपक-श्रेणि कर नहीं सकता। यह तो हुश्रा "कर्मप्रन्ध"फा अभिप्राय । परन्तु सिद्धान्त का अभिप्राय ऐसा है कि जीप एक जन्म में एक चार ही श्रेणि कर सकता है। अतएव जिसने एक बार उपशम-श्रेणि की है वह फिर उसी जन्म में क्षपक-श्रेणि नहीं कर सकता। उपशम-श्रेणि के प्रारम्भ का क्रम संक्षेप में इस प्रकार हैचौथ, पाँचथे, छठे और सातवें गुणस्थान में से किसी भी गुणस्थान में वर्तमान जीव पहले चार अनन्तानुबन्धिकंपायों का उपशम करता है और पीछे दर्शनमोहनीय-त्रिक का उपशम करता है । इस के बाद यह जीव छठे तथा सातवें गुणस्थान में सैकड़ों दंने श्राता और जाता है । पीछे
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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