SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१३) जो सम्यग्दृष्टि हो कर भी किसी भी प्रकार के व्रत को धारण नहीं कर सकता, वह जोव अविरतसम्यग्रोष्ट,, और उस का स्वरूपायशेष अविरतसम्यग्हाप्टे-गुणस्थान कहाता है . अविरत जीव सात प्रकार के होते हैं । जैसे १-जो व्रतों को न जानते हैं, न स्वीकारते हैं और न पालते हैं वे सामान्यतः सय लोग। २-जो व्रतों को जानते नहीं, स्वीकारते नहीं किन्तु पालते हैं। वे तपस्वीविशेष । __३-जो व्रतों को जानते नहीं, परन्तु स्वीकारते हैं और स्वीकार कर पालते नहीं, वे पार्श्वस्थ नामक साधुविशेष। ४-जिनको व्रतोंका ज्ञान नहीं है, किन्तु उनका स्वीकार तथा पालन बरावर करते हैं, घे अगीतार्थ मुनि । ५-जिनको व्रतों का शान तो है, परन्तु जो व्रतों का स्वीकार तथा पालन नहीं कर सकते, वे श्रेणिक, कृष्ण श्रादि । ६-जो व्रतों को जानते हुये भी स्वीकार नहीं कर सकते किन्तु उनका पालन अवश्य करते हैं, वे अनुत्तरविमान चासिदेव । ७-जो व्रतों को जानकर स्वीकार लेते हैं, किन्तु पीछे से उन का पालन नहीं कर सकते, वे संविग्नपातिक । सम्यग्ज्ञान सम्यग्ग्रहण औरसम्यक्पालनसे ही व्रत सफल होते हैं । जिन को व्रतों का सम्यग्ज्ञान नहीं है,जोबतों को विधिपूर्वक ग्रहण नहीं करते और जो व्रतो का यथार्थ पालन नहीं करते,
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy