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________________ १ (=) करण" नामक परिणाम तो श्रभव्य जीवों को भी श्रनन्त वोर श्राता है । पूर्वकरण - परिणाम से जब राग द्वेष की ग्रन्थि टूट जाती है, तब तो और भी अधिक शुद्ध परिणाम होता है । इस अधिक शुद्ध परिणाम को "अनिवृत्ति करण" कहते हैं । इसे अनिवृत्तिकरण कहने का अभिप्राय यह है कि इस परिणाम के बल से जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कर ही लेता है । सम्यक्त्व को प्राप्त किये बिना वह निवृत्त नहीं होता - श्रर्थात् पीछे नहीं हटता । इस अनिवृत्तिकरण नामक परिणाम के समय वीर्य समुल्लास - श्रर्थात् सामर्थ्य भी पूर्व की अपेक्षा बढ़ जाता है । अनिवृत्तिकरण की स्थिति श्रन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण मानी जाती है। निवृत्तिकरण की अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण स्थिति में से जब कई एक भाग व्यतीत हो जाते हैं, और एक भाग मात्र शेष रह जाता है, तय अन्तःकरण की क्रिया शुद्ध होती है । श्रनिवृत्तिकरण की अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण स्थिति का अन्तिम एक भाग - जिसमें अन्तः करण की क्रिया प्रारम्भ होती है - वह भी अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण ही होता है । श्रन्तर्मुहूर्त के श्रसंख्यात भेद हैं, इस लिये यह स्पष्ट . है कि अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त्त की अपेक्षा उसके अन्तिम भाग का अन्तर्मुहुर्त्त जिसको अन्तर करण क्रिया काल कहना · चाहिये - वह छोटा होता है । अनिवृत्ति करण के अन्तिम भाग में अन्तःकरण की क्रिया होती है इसका मतलब यह है कि अभी जो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म उदयमान है, उसके उन दलिकों को जो कि श्रनिवृत्तिकरण के बाद अन्तर्मुहूर्त्त तक उदय में आनेवाले हैं, आगे पीछे करलेना श्रर्थात् श्रनिवृत्तिकरण के पश्चात् श्रन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण काल में मिथ्यात्वमोह नीय कर्म के जितने दलिक उदयमें आनेवाले हों, उनमें से कुछ दलिकों को अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय पर्यन्त
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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