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________________ (४) अर्थ-गुणस्थान के १४ (चौदह ) भेद हैं। जैसे-(१). मिथ्यादृष्टि गुणस्थान , (२) सास्वादन ( सासादन ) सम्यग्हाष्ट गुणस्थान (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र)गुणस्थान (४) अविरत सम्यग्दीष्ट गुणस्थान () देशविरत गुणस्थान, (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान,(७) अप्रमत्तसयत गुणस्थान(८) निवृत्ति (अपूर्वकरण),गुणस्थान(६)अनिवृत्तिवादर सम्पराय गुणस्थान (१०) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान, (११) उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान, (१२) क्षीणकपाय चीतराग-छन्नस्थ गुणस्थान, (१३) लयोगि केवलि गुणस्थान और (१४) अयोगि केवलि गुणस्थान । भावार्थ-जीव के स्वरूपविशेष को (भिन्न स्वरूप को) गुणस्थान कहते हैं। ये स्वरूपविशेप ज्ञान दर्शन चारित्र आदि गुणों की शुद्धि तथा अशुद्धि के तरतम-भाव से होते हैं। जिस वक्त अपना आवरणभूत कर्म कम होजाता है,उस वक्त ज्ञान-दर्शन-चारित्र-आदि गुणों की शुद्धि अधिक प्रकट होती है। और जिस वक्त श्रावरणभूत कर्म की अधिकता हो जाती है, उस वक्त उक्त गुणों की शुद्धि कम हो जाती है, और अशुद्धि तथा अशुद्धि से होनेवाले जीव के स्वरूप विशेष असंख्य प्रकार के होते हैं, तथापि उन सब स्वरूप-विशेपों का संक्षेप चौदह गुणस्थानों के रूप में कर दिया गया है । चौदहों गुणस्थान मोक्षरूप महल को प्राप्त करने के लिये सीढ़ियो के समान हैं। पूर्व पूर्व गुणस्थान की अपेक्षा उत्तर २ गुणस्थान में ज्ञान-श्रादिगुणों की शुद्धि बढ़ती जाती है, और अशुद्धि घटती जाती है। अतएच आगे आगे के गुणस्थानों में अशुभ प्रकृतियों की अपेक्षा शुभ प्रकृतियां अधिक वाँधी जाती है, और शुभ प्रकृतियों का बंध भी क्रमशः रुकता जाता है।
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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