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________________ مد कर्मस्तवनामक दूसरा कर्मग्रन्थ बन्धाधिकार | तह थुणिमो वीरजिणं जह गुणठाणेसु सयलकंमाई | बन्धुदत्रदीरण्यासत्तापत्ताणि खवियाणि ॥ १ ॥ ( तथा स्तुमो वीरजिनं यथा गुणस्थानेषु सकलकर्माणि । बन्धोदयोदीरणासत्ताप्राप्तानि क्षपितानि ॥ १ ॥ ) अर्थ- गुणस्थानों में बन्धको उदय को, उदीरणा को और सत्ता को प्राप्त हुये सभी कर्मों का क्षय जिस प्रकार भगवान् वीर ने किया, उसी प्रकार से उस परमात्मा की स्तुति हम करते हैं । भावार्थ - श्रसाधारण और वास्तविक गुणों का कथन ही स्तुति कहलाती है । सकल कर्मों का नाश यह भगवान् का असाधारण, और यथार्थ गुण है, इससे उस गुण का कथन करना यही स्तुति है । मिथ्यात्वादि निमित्तों से ज्ञानावरणश्रादि रूप में परिणत होकर कर्म पुलों का आत्मा के साथ दूध पानी के समान मिलजान्म, उसे "बंध" कहते हैं ।
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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