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________________ (४) वर्णन, कर्म के बन्धादिका है, पर वह किया गया है स्तुति के बहाने से । अतएव, प्रस्तुत ग्रन्थ का अथानुरूप नाम 'कर्मस्तव' रखा गया है। ग्रन्थ-रचना का श्राधार। इस प्रन्थ की रचना 'प्राचीन कमस्तव नामक दूसरे कर्म प्रन्थ के आधार पर हुई है । उसका और इस का विषय एक हो है। भेद इतना ही है कि इस का पारमाण, प्राचीन कर्मग्रन्थ से अल्प है। प्राचीनमें ५५ गाथाएँ हैं,पर इसमें ३४ जो वात प्राचीन में कुछ विस्तार से कहा है उसे इसमें परिमित शब्दों के द्वारा कह दिया है । यद्यपि व्यवहार में प्राचीन कर्मग्रन्थ का नीम, 'कर्मस्तव' है, पर उसके आरंभ की गाथा से स्पष्ट जान पड़ता है कि उसका असली नाम, 'वन्धोदयसत्त्व-युक्त स्तव' है। यथा:नमिऊण जियवरिदे तिहुयणवरनाणदसणपईवे । बंधुदयसंतजुत्त वोच्छामि थयं निसामेह ||१|| प्राचीन के आधार से बनाये गये इस कर्मग्रन्थ का 'कर्मस्तव' नाम कर्ता ने इस प्रन्थ के किसी भाग में उल्लिखित नहीं किया है, तथापि इसका 'कर्मस्तव' नाम होने में कोई संदेह नहीं है । क्योंकि इसी ग्रन्थ के कर्ता श्री देवेन्द्रसूरि ने अपने रचे तीसरे कर्मग्रन्थ के अन्त में 'नेयं कम्मत्थयं लो' इस अंश से उस नाम का कथन कर ही दिया है। 'स्तव' शब्द के पूर्व में 'बन्धोदयसत्व' या 'कर्म' कोई भी
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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