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________________ (१००) गा० प्रा० सं० २७-~-अडतीस अष्टाविंशत् अडतीम. २५.-अडयाल-सय अष्टाचत्वारिं- एक सौ अड़तालीस. शच्छत -ग्रडवन्न श्रष्टापच्चाशत अहावन. ५,१४,२६-अगा अनन्तानुवाधिकपाय. १२-अणंत अनन्त अन्त का अभाव. १६-अणाइज्जदुग अनादेयद्विक । अनादेयनाम और अयश: कीर्तिनामकर्म. १३,१४,१५-अणुदय - अनुदय उदय फा अभाव. २४-अणुदीरग अनुदीरक उदीरणा नहीं करने वाला. १५-अणुपुन्वी . पाठपूर्वी भावपूर्वीनामधर्म. २५-अत्तलाम यात्मलाभ स्वरूप-प्राप्ति. २१,३२-अथिर अस्थिर अस्थिरनामकर्म. ७-अथिरदुग अस्थिरद्विक अस्थिरनामबम और अशुभ नामकर्म, २२-अन्नयर अन्यतर दो में से एक. ८-अन्नह अन्यथा अन्य प्रकार से. २,११,१८-अनियहि अनित्ति अनिवृत्तियादरमम्पराय२७, . गु०पृ०२० ३२-अपज्जत्त अपर्याप्त अपर्याप्तनामकर्म. १३--अपत्त अप्राप्त प्राप्त नहीं. २,८,१७-अपमत्त अप्रमत्त । अप्रमत्तसंयतगु० पृ० १५ ६,१८,२६-अपुन . अपूर्व अपूर्वकरणगुणस्थान पृ०१६
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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