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________________ (५) समय में १३ कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है। वे तेरह कर्मप्रकृतियाँ ये हैं-मनुष्य-भिक (मनुष्यगति, मनुण्यानुपूर्वी. और मनुष्यप्रायु ) ३, त्रस-त्रिक-(प्रस, बादर और पर्याप्तनामकर्म ) ६, यश-कीर्तिनामकर्म ७, श्रादेयनामकर्म ८, सुभगनामकर्म ६, तीर्थरनामकर्म १०, उच्चगोत्र ११, पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्म १२ और सातवेदनीय या असातवेदनीय में से कोई एक १३। इन तेरह कर्मप्रकृतियों का अभाव चौदहवे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है और आत्मा निष्कर्म होकर सर्वथा मुक्त बन जाता है ॥३३॥ मतान्तर और उपसंहार नरअणुपुग्विविणा वा बारस चरिमसमयंमि जो खविडं। पत्तोसिद्धि देविंदवंदियं नमह तं वीरं ॥ ३४॥ नरानुपूर्वी विना वा द्वादश चरम-समये यः क्षपयित्वा । प्राप्तस्सिद्धि देवेन्द्रवन्दितं नमत तं वीरम् ॥ ३४ ॥ अर्थ-अथवा पूर्वोक्त तेरह कर्म-प्रकृतियों में से मनुष्यपानुपूर्वी को छोड़कर शेष १२ कर्मप्रकृतियों को चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में क्षीणकर जो मोक्ष को प्राप्त हुये हैं, और देवेन्द्रों ने तथा देवेन्द्रसूरि ने जिन का वन्दन (स्तुति तथा प्रणाम किया है, ऐसे परमात्मा महावीर को तुम सब लोग नमन करो ॥ ३४ ॥ भावार्थ-किन्हीं श्राचार्यों का ऐसा भी मत है कि चौदहवे गुणस्थान के अन्तिम समय में मनुष्य-त्रिक आदि पूर्वोक्त १३ कर्मप्रकृतियों में से, मनुण्य-पानुपूर्वी के विना शेष १२
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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