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________________ ( ७२ ) सत्ताधिकार | पहले सत्ता का लक्षण कहकर, अनन्तर प्रत्येक मैं सत्ता - योग्य कर्म प्रकृतियों को दिखाते हैं: 'गुणस्थाना सत्ता कम्माठई बंधाई - तद्ध-अत्त-लाभाणं । संते डाल - सयं जा उवसमु विजिणु वियतइए ॥ २५ ॥ सत्ता कर्मणां स्थितिबन्धादिलब्धात्मलाभानाम् । सत्यष्टाचत्वारिंशच्छतं यावदुपशमं विजिनं द्वितीयतृतीये ॥ २५॥ अर्थ - कर्म - योग्य जिन पुगलों ने बन्ध या संक्रमणद्वारा. अपने स्वरूप को (कर्मत्व को ) प्राप्त किया है उन कर्मों के श्रात्मा के साथ लगे रहने को "सत्ता" समझना चाहिये । सत्तामैं १४८ कर्म - प्रकृतियाँ मानी जाती हैं । पहले गुणस्थान से लेकर ग्यारहवे गुणस्थान- पर्यन्त ग्यारह गुणस्थानों में से, दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर शेष नव गुणस्थानों १४८ कर्म प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है। दूसरे तथा तीसरे गुणस्थान में १४७ कर्म प्रकृतियों की सत्ता होती है; क्योंकि उन दो गुणस्थानों में तोर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता नहीं होती ॥ २५ ॥. 'भावार्थ-बन्ध के समय जो कर्म-पुद्गल जिस कर्मस्वरूप में परिणत होते हैं उन कर्म- पुद्गलों का उसी कर्मस्वरूप में श्रात्मा से लगा रहना यह कर्मों की "सत्ता" कहाती है । इस प्रकार उन्हीं कर्म-पुद्गलों का प्रथम स्वरूप को - छोड़ दूसरे कर्म-स्वरूप में बदल, 'आत्मा से लगा रहना, यह भी "संत्ता" कहलाती है । प्रथम प्रकार की सत्ता
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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