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________________ (७३) गुणस्थानों में ऐसे श्रध्यवसाय नहीं होते जिनसे कि वेदनीयद्विक की तथा श्रायु की उदीरणा हो सके । इससे सातवें आदि गुणस्थानों में उदय योग्य तथा उदीरणा-योग्य कर्म - प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार होती है: - सातवें गुणस्थान में उदय ७६ प्रकृतियों का और उदीरणा ७३ प्रकृतियों की । श्रठवें गुणस्थान में उदय ७२ प्रकृतियों का और उदीरणा ६६ प्रकृतियों की । नववे गुणस्थान में उदय ६६ कर्मप्रकृतियों का और उदीरणा ६३ कर्म-प्रकृतियों की । दसवें में उदय- योग्य ६० कर्म - प्रकृतियाँ और उदीरणा - योग्य ५७ कर्मप्रकृतियाँ | ग्यारहवें में उदय - योग्य ५६ कर्म - प्रकृतियाँ और उदीरणा-योग्य ५६ कर्म-प्रकृतियाँ | बारहवे गुणस्थान में उदय योग्य ५७ कर्म - प्रकृतियाँ और उदीरणा-योग्य ५४ कर्मप्रकृतियाँ । और उसी गुणस्थान के अन्तिम समय में उदय योग्य ५५ कर्म - प्रकृतियाँ और उदीरणा-योग्य ५२ कर्मप्रकृतियाँ तथा तेरहवें गुणस्थान में उदय योग्य ४२ कर्मप्रकृतियाँ और उदीरणा-योग्य ३६ कर्म - प्रकृतियाँ हैं । चौदहवे गुणस्थान में किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं होती; क्योंकि उदीरणा के होने में योग की अपेक्षा है, पर उस गुणस्थान में योग का सर्वथा निरोध ही हो जाता है ||२४|| ॥ इति ॥ उदीरणाधिकार समाप्तः 1
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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