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________________ कहा कि हमे सामान्य लोगों की तरह मल्लभूमि मे नहीं लड़ना चाहिए, हम दोनो मे कौन किसका हाथ मोड देता है- इसी से हम दोनों के बल की परीक्षा हो जायेगी। श्रीकृष्ण ने भी इस बात को स्वीकार किया। प्रभु श्रीनेमि के वाम हस्त से स्पर्श करते ही श्रीकृष्ण की अत्यन्त सुदृढ भुजलता कन्धे तक स्वयं झुक गयी। श्रीकृष्ण ने सोचा कि अकस्मात् मेरी भुजा कमल नाल की तरह क्यों हो गई अर्थात् दैव योग से ही ऐसा हुआ है तो अब मैं भी इसकी भुजा को झुकाकर क्यो न उनके तुल्य बलवान् बन जाऊँ। श्रीनेमि ने उनके भाव को जानकर अपने वाम हस्त को श्रीकृष्ण की ओर बढा दिया। परन्तु पूर्णरूप से प्रयत्न करने के बाद भी श्रीकृष्ण श्रीनेमि की भुजा को उसी प्रकार झुका नहीं पाये जिस प्रकार समुद्र पर्यन्त विस्तीर्ण हुए हिमालय की दीर्घ चोटी को हाथी नहीं झुका पाता है। बलिष्ठ श्रीकृष्ण श्रीनेमि की भुजा को मुक्त कर उनका आलिंगन करते हुए बोले- हे भाई। संसार में बसन्त ऋतु की सहायता से काम और वायु की सहायता से अग्नि जिस प्रकार अजेय हो जाते है उसी प्रकार आप भी अजेय हो जाये वीक्षापन्नोऽप्यधिहसमुखो दोषमुन्मुच्य दोष्मानङ्केपालिं दददिति हरिः स्वामिनं व्याजहार। भ्रातः । स्थाम्ना जगति भवतोऽजरयनेवासमद्य प्रद्युम्नाग्नी इव मधुनभः श्वाससाहायकेन।' उनकी जितेन्द्रियता की झलक कई स्थानों पर दृष्टिगत होती है उदाहरणार्थ वसन्त आगमन पर, श्रीकृष्ण की पत्नियों के साथ जलक्रीडा आदि का उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पडता हैं यहाँ तक कि वे पाणिग्रहण भी नहीं करते हैं। . जैनमेघदूतम् १/४९
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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