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________________ वाले, तथा विना शास्त्र दर्शन के ही विद्वान प्रतीत हो रहे थे। अतः श्री नेमि का रूप सौन्दर्य बाल्यकाल मे भी अलौकिक परम शोभा से युक्त था। युवावस्था मे श्रीनेमि के व्यक्तित्व के सौन्दर्य और गरिमा का तो कहना ही क्या? राजीमती मेघ से अपने स्वामी की सुन्दरता का वर्णन करती हुई कहती है कि श्रीनेमि के प्रत्येक अंग के कमल आदि की उपमा दी जा सकती है। परन्तु उपमा देने के बाद उपमाधिक्य दोष हो जाता है पूर्णेन्दुः श्रीसदनवदनेनाब्जपत्रं च दृग्भ्यां पुष्पामोदो मुखपरिमलैः रिष्टरलं च तल्वा। वर्येऽधेि क्वचिदुपमितिं दधुरेवं बुधाश्चेदेतास्यकैर्भवति उपमाधिक्यदोषस्तथापि।।' अर्थात् नेमि के सुन्दर वदन से पूर्णचन्द्र समानता को प्राप्त करता है, नेमि के नेत्रो से कमल-दल सदृशता प्राप्त करता है, नेमि के मुखपरिमल से पुष्प पराग भी समानता को प्राप्त करता है, नेमि के शरीर से रिष्टरत्न सदृशता प्राप्त करते हैं। यदि विद्वज्जन कहीं भी वर्णनीय पदार्थ-समूहों की भगवान के अङ्गों द्वारा उपमा देते है तो भी उपमाधिक्य दोष होता है। एक श्लोक में तो कवि ने कमल, कदली स्तम्भ, गंगा का तट आदि को श्री नेमि के शरीर के शल्य माना है पद्म पद्भ्यां ........ बाहुपाणिद्वयेन' कमल उनके चरणों के, कदलीस्तम्भ उनकी उरूओं के, गङ्गा का तट उनकी कटि के, शोण उनकी नाभि के, प्रतोलीद्वार उनके वक्ष के, कल्पवृक्ष की शाखा उनकी भुजा के और उसके किसलय उनके करों के, पूर्णचन्द्र जैनमेघदूतम् १/२४ जैनमेघदूतम् १/२३
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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