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________________ तवश्चरण का प्रभाव उस पर इतना अधिक पड़ा कि वह भी तपस्विनी बनकर तपस्या करने लगी। कवि ने इस काव्य मे नाना प्रकार से द्वारका नगरी के सौन्दर्य और वैभव का चित्रण किया है। राजीमती विविध उपायो से नेमिकुमार को संसारिक सुखो का उपभोग करने के लिए प्रेरित करती है। परन्तु उनका प्रयास निष्फल रहता है। काव्य मे विप्रलम्भ शृङ्गार एवं शान्त रस का अपूर्व सङ्गम मिलता है। काव्य का शुभारम्भ तो विरह से होता है, पर समाप्ति शान्त रस में होती है। नायक अथवा नायिका का सम्मिलन शारीरिक भोगों के लिए नही अपितु मोक्ष सौख्य की प्राप्ति के लिए होती है। कवि कहता है - चक्रे योगान् निजसहचरी मोक्षसौख्याप्तिहेतोः केषां न स्यादभिमतफला प्रार्थना ह्यन्तमेष। तामानन्दं शिवपुरि परित्याज्य संसार भाजां भोगानिष्टानभिमतसुखं भोजयामास शाश्वत् ।। इस तरह शृङ्गार रस का शान्तरस मे पर्यवसान कर कवि ने मानव व्यवहार मे एक उदात्त आदर्श की प्रतिष्ठा की है। नेमिदूत काव्य की भाषा प्रसादयुक्त है, काव्य में सर्वत्र प्रवाह है। शान्तरस प्रधान होते हुए भी विरह भावना का सजीव और सांगोपांग चित्रण किया है। ___जैनमेघदूतम् -' मेघदूत के पद्यों की समस्यापूर्ति वाले इन दूतकाव्यों को छोड़कर जैनकवियों की इस विषय में स्वतन्त्र रचनाएँ भी उपलब्ध है। ऐसी रचनाओं में जैनदूतम् का स्थान निःसन्देह ऊँचा है। यह काव्य ४ सर्गों में विभक्त है जो पूर्वोत्तर नेमिदूत में वर्णित है अर्थात् नेमिकुमार के प्रवज्या लेने पर राजीमती उनके पास मेघ को दूत बनाकर अपना विरह सन्देश । जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर से प्रकाशित १९२४ में
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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