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________________ 215 (३) नि:काक्षिता - निःकाक्षिता सम्यग्दर्शन का प्रमुख अंग है। इसके अन्तर्गत साधक को निष्काम होकर साधना मे लगना चाहिए तथा किसी प्रकार के लौकिक सुख की इच्छा नहीं होनी चाहिए और साधक को निरीह होना चाहिए। जैनमेघदूतम् मे साधक निष्काम भाव से अपनी साधना मे लगे हुए है उन्हे अन्य किसी प्रकार की सुख की इच्छा नही है। (४) निर्विचिकित्सा - साधक को मनुष्य के शारीरिक वैभव या दरिद्रता आदि पर ध्यान न देकर उसे उसके गुणों पर ही ध्यान देना चाहिए। यह भी सम्यग्दर्शन के प्रमुख अंग है। (५) अमुद्धदृष्टि - साधक में इतना विवेक होना चाहिए कि वह कुमार्ग पर चलने वालो की बातो मे न आये तथा सन्मार्ग से विचलित न हो। काव्य के नायक श्री नेमि भी अपने जीवन पर्यन्त सन्मार्ग से विचलित नही हुए है। (६) उपवृंहण - साधक को अपने गुणों को बढ़ाते रहने का प्रयत्न करना चाहिए। (७) स्थिरीकरण - किसी भी प्रलोभन में पड़कर सन्मार्ग का त्याग नही करना चाहिए तथा अपनी स्थिति सुहृद करनी चाहिए। जैनमेघदूतम् में श्री नेमि माता -पिता तथा श्रीकृष्ण और श्री कृष्ण की पत्नियों द्वारा लाख कहने पर या प्रलोभन देने पर भी किसी प्रकार के प्रलोभन में नहीं आते हैं और सन्मार्ग का त्याग नहीं करते है वे निरन्तर मोक्ष की प्राप्ति मे लगे रहते (८) वात्सल्य - साधक को अपने सहयोगी धर्मावलम्बियों से स्नेह करना चाहिए। श्री नेमि अपने सभी सम्बन्धियों के साथ स्नेह करते हैं परन्तु अपनी साधना में किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचाना चाहते हैं।
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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