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________________ 189 ऐसा ही एक श्लोक देखा जा सकता है, जिसमे एक साथ आठ अलङ्कारो का आचार्य ने सुनियोजन कुछ इस ढंग से किया है जिससे उस श्लोक का मूलभाव और बाह्य शिल्प किञ्चिदपि नष्ट नहीं होने पाया है- यथा वाता वाद्यध्वनिमजनयन् वल्गु भृङ्गा अगायं - स्तालान् दधे परभृतगण: कीचका वंश्कृत्यम् । वल्लयो लोलैः किशलयकरैर्लास्यलीलां च तेनुस्तद्भक्त्येति व्यरचयदिव प्रेक्षणं वन्यलक्ष्मीः।' यहाँ पर 'वनलक्ष्मी' आदि अप्रकृति से प्रकृति ‘वायु ही' जिसमें वादक है, भुंग जिसमे मधुर गीत गा रहे है, आदि की उपमा दी जाने के कारण निदर्शना अलङ्कार; लताओं का नर्तकी के समान नृत्य करने के कारण अतिशयोक्ति अलङ्कार; किशलय और कर में अभेद होने के कारण रूपक अलङ्कार 'तेनुस्तद्भक्त्येति' इस क्रिया का एकत्व होने के कारण दीपक अलङ्कार है, श्लोक के पूरे भाव मे उत्प्रेक्षा होने से उत्प्रेक्षा अलङ्कार; . 'वनलक्ष्मी' इस श्लेषयुक्त विशेषणो द्वारा अप्रकृत कथन होने से समासोक्ति अलङ्कार है। इस प्रकार आचार्य ने एक साथ कई अलङ्कारों का प्रयोग सफलता पूर्वक किया है। आचार्य मेरुतुङ्ग कल्पना के उत्कृष्ट कलाकार हैं, इन्होंने शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार के प्रयोग में अपनी अनूठी कल्पना की अभिव्यक्ति किया है। श्लेष अलङ्कार का सर्वाधिक प्रयोग कवि के पाण्डित्य का सूचक है। किन्तु कही-कही श्लेष के प्रयोग से इतिवृत्त की स्वभाविकता में व्याघात उत्पन्न हुआ है, परन्तु इससे काव्य की भाषा एवं स्वरूप पर कहीं भी भाव भंगता या क्रमभंगता नहीं आ पायी है। ' जैनमेघदूतम् २/१४
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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