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________________ 171 अन्या लोकोत्तर! तनुमता रागपाशेन बद्धो मोक्षं गासे कथंयमिति? मितं सस्मितं भाषमाणा। व्यक्तं रक्तोत्पलविरचितेनैव दाम्ना कटीरे काञ्चीव्याजात्प्रकृतिरिवं तं चेतनेशं बबन्ध।।' धन्या मन्ये जलधर! हरेरेव भार्या स याभिदृष्टो दृग्भिः परिजनमनश्छन्दवृत्यापि खेलन्। कस्माज्जज्ञे पुनरियमहं मन्दभाग्या स्त्रिचेली या तस्यैवं स्मरणमपि हा! मूर्छनाप्त्या लवेन।।। उपर्युक्त सभी श्लोकों को पढ़ने के या सुनने मात्र से ही अर्थ सहसा ही चित्त में व्याप्त हो जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण काव्य को कवि ने तीन गुणों से विभूषित किया है। इनमें सर्वाधिक प्रयोग माधुर्य गुण का हुआ है। ओज गुण का प्रयोग प्रथम सर्ग के कुछ ही श्लोकों में मिलता है, परन्तु अत्यल्प होते हुए भी ओजगुण के प्रयोग से काव्य मे सजीवता आ गई है। यद्यपि आचार्य मेरुतुङ्ग की क्लिष्ट भाषा है, फिर भी कहीं-कहीं भाषा के प्रवाह में सरलता की झलक स्पष्ट दिखलाई देती है। इन-इन स्थलों पर प्रसाद गुण ने अपना स्थान बना लिया है। कवि ने तीनों गुणों का प्रयोग अत्यन्त कुशलता से की है। रीतियाँ आचार्य मेरुतुङ्ग कृत काव्य में प्रयुक्त रीतियों के पूर्व रीति पर शास्त्रीय विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है जैनमेघदूतम् २/२१ जैनमेघदूतम् २/२४
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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