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________________ 152 जैनमेघदूतम् मे आचार्य मेरुतुङ्ग ने शृङ्गार के दोनो पक्षो का वर्णन करने के पश्चात उनको शान्त रस में समाविष्ट कर दिया है। जैन मेघदूतम् मे अभिव्यञ्जित शान्त रस की सुधाधारा रागद्वेष से ग्रस्त मानव समाज को शाश्वत आनन्द प्रदान करने की क्षमता रखता है। काव्य के प्रारम्भ मे ही श्री नेमि के रागशून्यता का दर्शन होता है जिसमें वे राजीमती को त्यागकर पर्वतश्रेष्ठ पवित्र रैवतक को स्वीकार करते है कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्छुरत्यन्तधीमा.....रैवतकं स्वीचकार।। उपर्युक्त श्लोक मे शान्त रस की झलक आती है। शान्त रस की अभिव्यञ्जना करती हुई राजीमती की सखियाँ श्री नेमि के अध्यात्मपरक विशेषताओं का वर्णन करती हैं और राजीमती को सम्यग् ज्ञान रूपी शस्त्र से महामोह रूपी मल्ल को मार डालने को कहती हैं रागाम्भोधौ ललितललनाचाटुवाग्भङ्गिभिर्यः ... . . . स्प्रष्टुमप्यक्षमास्ताः।। सखियों की इस प्रकार के वचनों को सुनकर राजीमती श्री नेमि के समीप जाकर दीक्षा ग्रहण कर लेती है सध्रीचीनां वचनरचनामेवमाकर्ण्य साऽथो पत्युानादवहितमतिस्तन्मयत्वं तथाऽऽपत्। सङ्ख्याताहैरधिगतमहानन्दसर्वस्वसद्मा तस्माद्भजेऽनुपमिति यथा शाश्वती सौख्यलक्ष्मीम् ।।' जैनमेघदतम् १/१ जैनमेघदतम् ४/४०
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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