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________________ 144 (२९) धृति (३०) चपलता (३१) ग्लानि (३२) चिन्ता और (३३) वितर्क। व्यभिचारीभाव पद की व्युत्पत्ति - व्यभिचारीपद की निष्पत्ति करते हुए बताया गया है कि वि एवं अभि उपसर्गो के गति तथा संचालन अर्थ में चर् धातुसे व्यभिचारीपद निष्पन्न होता है। इस दृष्टि से विभिन्न रसो मे अनुकूलता के साथ उन्मुख या संचरित होने वाले भावों को व्यभिचारी कहा जाता है। ये व्यभिचारी विभिन्न अनुभावो से युक्त आंगिक वाचिक एवं सात्त्विक अभिनयों द्वारा स्थायीभावों को रस रूप में व्यक्त करते है अर्थात् स्थायी भावो को रस तक ले जाते हैं। इसी आधार पर आचार्य भरत ने उनकी परिभाषा (नाट्यशास्त्र ७/१४२-१७१) में कहा है कि 'जो रस में नानारूप से विचरण करते है और रसो को पुष्ट कर आस्वादन योग्य बनाते हैं उन्हे व्यभिचारी भाव कहते हैं (विविध अभिमुख्येन रसेषु चरन्तीति व्यभिचारिणः वागाङ्गसत्त्वोपेताः प्रयोगे रसान्नयन्तीति व्यभिचारिणः)। वे उसी प्रकार स्थायी भावो को रसों तक ले जाते है, जैसे लोक प्रचलित परम्परा के अनुसार 'सूर्य अमुक दिन या अमुक नक्षत्र को प्राप्त कराता या ले जाता है। इस दृष्टान्त मे यद्यपि यह नहीं कहा गया है कि सूर्य दिन या नक्षत्र को अपनी बाजुओ या कन्धों पर उठाकर ले जाता है, फिर भी लोक में प्रचलित है। जैसे सूर्य या नक्षत्र या दिन को धारण करता है या ले जाता है उसी प्रकार व्यभिचारीभाव स्थायीभावों को धारण करते या रस तक ले जाते हैं। वे स्थायीभावों को रस रूप में भावित करते हैं। इसलिए उन्हें व्यभिचारी कहा गया है। साहित्यदर्पण ३/१४१ पृ. सं. २०५ भारतीय नाट्य परम्परा और अभिनय दर्पण पृ. सं. १७५
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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